Friday, April 9, 2010

आई प्रवीर - द आदिवासी गॉड - 2

(पिछली किस्त से जारी)

मध्य प्रदेश की सरकार यातायात के नए संसाधनों के प्रति पूरी तरह उदासीन है. दण्डकारण्य परियोजना में जगदलपुर से रायपुर तक एक अच्छी और पक्की सड़क प्रस्तावित है. साथ ही एक नई सड़क अबूझमाड़ होते हुए दुर्ग के लिए जो वर्तमान में दुर्गम एवम पहुंचविहीन है, भी प्रस्तावित है. इसके लिए स्थानीय कलेक्टर द्वारा विशेष सिफ़ारिश भी की गई है किन्तु विडम्बना यह है कि बस्तर के वर्तमान सांसद श्री लखमू द्वारा इसे भारतीय संसद में प्रस्तुत ही नहीं किया जा सका है. वायुयान सेवाएं यहां उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि वायुयानों को उतारने के लिए कोई हवाई पट्टी नहीं है. खेद है कि इस हवाई पट्टी की मांग अब तक नहीं उठाई गई और यह प्रकरण राज्य व केन्द्र सरकार के मध्य झूल रहा है. बस्तर के तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुन्दरलाल त्रिपाठी ने, जिन्हें १९४७ में पं. रविशंकर शुक्ल ने बस्तर कांग्रेस का पदाधिकारी नामजद किया था, एक कमज़ोर सी मांग इस बाबत उठाई थी जिसे अभी भी संसद में पेश होना बाक़ी है. यह सुन्दरलाल त्रिपाठी बस्तर के पुराने निवासी हैं जो कभी कभी अपने मित्र प्रान्तीय गृहमन्त्री से मिला करते थे. रियासती काल में सुन्दरलाल त्रिपाठी ने गांधी स्मृति फ़ंड की रकम हड़प ली थी. कहा जाता है कि उनके एक अन्य सहयोगी सूर्यपाल ने बस्तर ग्राम की बुनकर सहकारी समिति की रकम के साथ भी यही किया था. यह बस्तर ग्राम जगदलपुर से ग्यारह किलोमीटर दूर है. हमेशा की तरह इन ग़लत मदों पर खर्च किए गए पैसे के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई बल्कि उसका महत्व बढ़ाकर मेरे नाम से आयोजित एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन सुन्दरलाल से कराया गया. इसी काल में बस्तर रियासत के विभाजन के भी कतिपय दावे किए गए थे. एक सम्मानित शिक्षाविद और भाषा विशेषज्ञ श्री सुनील कुमार को भी यहां आमंत्रित किया गया था जिन्होंने आन्ध्र और उड़ीसा के अलग अलग दावों के सन्दर्भ में कई सन्दर्भ प्रस्तुत किए थे. किन्तु उनके द्वारा लिखित भाषण मेम उन सन्दर्भित अंशों को सुन्दरलाल द्वारा हटवा दिया गया था. इसके अलावा सुन्दरलाल का यह भी कहना था कि यूरोप के एक सुप्रसिद्ध विद्वान वेरियर अल्विन का यह कथन भी ग़लत है कि बस्तर की संस्कृति देश के अन्य भागों की संस्कृतियों से एकदम भिन्न है. आज के परिप्रेक्ष्य में यह सत्य कितना रुचिकर है जबकि केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा इस कड़वे सच की वास्तविकता को बुरी तरह अनुभव कर लिया गया है, जब बहुत देर हो चुकी है. भाषा आयोग के अध्यक्ष सरदार पणिक्कर जब नागपुर आए थे तो सुन्दरलाल त्रिपाठी ने शोरगुल मचाकर रोना शुरू कर दिया था कि अब बस्तर का विभाजन किया जा रहा है. सच्चाई तो यह है कि उस काल में सुन्दरलाल त्रिपाठी मध्यप्रदेश सरकार में शिक्षामन्त्री बनने का दिवास्वप्न देखने लगे थे.

सुन्दरलाल त्रिपाठी और उनके सहयोगी सूर्यपाल तिवारी के सारे आपराधिक मामले दबा दिए गए. एक वकील नरसिंहराव, जिसे ब्रिटिश प्रशासन ने प्रतिक्रियावादी सिद्ध कर जेल की सज़ा दी थी, को उसकी जेल की सज़ा को स्वतन्त्रता आन्दोलन का महत्व देकर प्रान्तीय सरकार द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया है जबकि प्रान्तीय सरकार यह शंका करती थी कि नरसिंहराव द्वारा बस्तर रियासत को आन्ध्र में सम्मिलित कराने को जनान्दोलन शुरू किया जा सकता है. फलतः स्वर्ण पदक देकर उसका मुंह चुप करा दिया गया है, किन्तु एक दूसरे सेवानिवृत्त आबकारी अफ़सर वयोकुरतुला ख़ान को, जिसे इस शंका पर कि उसके सम्बन्ध पाकिस्तान से हैं गिरफ़्तार किया गया था और सदमे की वजह से जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई. इस मृत्यु के कारण कोई भी अन्य कार्रवाई का सरकार द्वारा किया जाना शेष नहीं रह गया था. इसके ठीक बाद सुन्दरलाल त्रिपाठी का वह पत्र फ़ोटोग्राफ़ के साथ प्रकाशित हुआ था जो उसने जगदलपुर की कन्या पाठशाला की एक प्रधानाध्यापिका को लिखा था. इस पत्र में उसने अपने आप को उस औरत के पुत्र का पिता घोषित किया था. उस औरत का नाम श्रीमती पुरुषोत्तम था. रायपुर से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक समाचारपत्र में इस पत्र को ठाकुर प्यारेलाल ने प्रकाशित किया था. इस पत्र के प्रकाशन के बाद ही सुन्दरलाल को अस्पताल में भर्ती कराया गया क्योंकि औरतों के मामलों में उसकी आदत पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ने की है. जिसका स्वाबाविक परिणाम - गिरने से उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई थी. इसी कल में सूर्यपाल तिवारी ने बस्तर के लोगों द्वारा जमा किया हुआ धन जिसे ग्राम बस्तर में देवी मन्दिर के निर्माण के नाम पर जमा किया गया था, हड़पने में सफलता प्राप्त कर ली.

पहले आम चुनाव के आसपास अपने स्वयं के कतिपय असन्तोष के कारण जगदलपुर के शहरी क्षेत्र के कुछ लोग बस्तर ज़िले में नामज़द अन्तरिम कांग्रेस कमेटी को ह्टा देना चाहते थे. उन्होंने समझा था कि सबसे अच्छा मार्ग यही है कि इस सन्दर्भ में सभी ज़िम्मेदारियां बस्तर रियासत के पूर्व शासक के माथे मढ़ दी जाएं ताकि वे अपने प्रिय मंत्रीगणॊं की नज़रों में बने रहें. इसी बीच सुन्दरलाल और सूर्यपाल ने कुछ ब्राह्मणॊं तथा रियासत के पूर्व शासक के रिश्तेदारों को यह कहकर भड़काना शुरू किया कि वर्ष १९१० की रियासती क्रान्ति में उनके पूर्वजों को बस्तर के तत्कालीन शासकों द्वारा सश्रम कारावास की सज़ाएं सुनाई गई थीं. इस सभी कारगुज़ारियों के पीछे सुन्दरलाल और सूर्यपाल का एकमात्र उद्देश्य बस्तर की सत्ता को हथियाना था. जगदलपुर के ही कुछ लोगों द्वारा मुझसे इस काल में आग्रह किया गया था कि मैं स्वयं कांग्रेस द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवार के खिलाफ़ विधायक का चुनाव लड़ूं. वे स्वयं अपना उम्मीदवार आगे लाने में सक्षम नहीं थे. मैंने इस पर उन्हें सलाह दी थी कि मैं स्वयं इस स्तर की राजनीति में रुचि नहीं रखता और यह भी कि उन्हें स्वयं अपना कोई उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए. खड़े किए गए उम्मीदवार के गुणदोष के आधार पर उसे समर्थन देने या न देने के प्रश्न पर विचार किया जा सकता है. अन्ततः खड़े किए जाने वाले उम्मीदवारों के बारे में निर्णय लेने के लिए मुझे अधिकृत किया गया. मैंने इस पर रियासती राजगुरु के उत्तराधिकारी को जिसका नाम विद्यानाथ था, विधायकी के लिए अपने द्वारा समर्थित एक स्वतन्त्र उम्मीदवार घोषित कर दिया, जिसे अन्ततः उन्हीं लोगों ने जिन्होंने मुझे इसके लिए अधिकृत किया था, अस्वीकार कर दिया. इस सन्दर्भ में वास्तविकता यह थी किये लोग स्वयं चुनाव लड़ना चाहते थे और मुझसे अपेक्षा रखते थे मैं उन्हीं लोगों में से विधायकी के उम्मीदवार चुनूं और उनका समर्थन करूं. किन्तु मेरे द्वारा विद्यानाथ के नाम की घोषणा कर दिए जाने के बावजूद सभी आश्वासनों के, कि वे मेरे द्वारा चुने गए उम्मीदवार को सभी सहयोग देंगे, वे परदे के पीछे से छिप कर उसका विरोध करने लग गए.

(जारी)

4 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Let me quote from the first episode --यह एक जगजाहिर बात है कि भारत में तथाकथित विकास नामक शब्द एक ऐसी भेड़चाल का नाम है जिसमें राजधानियों में बन्द कमरों के भीतर सूट टाई धारण किए हुए लोगों के अपढ़ दस्ते सड़क, पानी, गरीबी, बिजली इत्यादि शब्दों का सतत जाप करते हुए अर्धचेतनावस्था में यदा कदा कुछ तुगलकी नियम निर्मित कर देते हैं और विकास होता जाता है.
True.

Anil Pusadkar said...

रोचक भी और दुर्लभ भी।आभार पाण्डे जी आपका।वैसे कल ही घोषना हुई बस्तर मे चिकित्सा के लिये डेढ सौ करोड रूपये देन की लेकिन सवाल फ़िर वही सामने आता है कि खर्च किस पर होंगे?उन्ही रूपयों की बंदरबांट का परिणाम है नक्सलवाद्।पहले उस पर शासन-प्रशासन पूरा हक़ जमाता था,जनता को कुछ नही मिलता,अब एक हिस्सा और बढ गया है नक्सलियों को जनता को अब भी कुछ नही मिल रहा है।वंहा तो आज भी बीमारी का इलाज झाड-फ़ूंक से ही हो रहा है।वंहा चश्मे वाली माता का मंदिर है जंहा चश्मा चढाया जाता है बीमारी दूर करने की मन्नत के लिये।सोच रहा हूं इस पर आज कुछ लिख दूं।

Sanjeet Tripathi said...

rochak, kai jankariyan mil rahi hai

वीरेन डंगवाल said...

adbhut kaam kiya tumne ye ashok.in pahaluon par agar kabhi dhang se ghaur kiya gaya hota,to kai samasyayen paida hi na hotin,magar aisa hota kyonkar!is mulka ki chaati par to apni hi daal ko apne hi haatho kaatne wale kaabiz rahe hain hamesha.rupaye jo bhi honge kahan jayenge sab jante hain.jo virodh karega vo baaghi kahlayeg-wahan raha to maara jayega.