Wednesday, April 29, 2009

मास्टर जी के पान में सिंदूर...

आधुनिक भारत में पारसी थियेटर जो प्रकारांतर से हिन्दी सिनेमा की नींव भी बना, के अन्यतम अभिनेता-निर्देशक और बहुआयामी व्यक्तित्व के इन्सान मास्टर फिदा हुसैन के बारे में महामहोपाध्याय अशोक पांडे ने कुछ दिनों पहले कबाड़खाना पर परिचयात्मक पोस्ट लगाई थी जिसे देखकर याद आया कि हमारे ख़ज़ाने में भी मास्टरजी पर कुछ दुर्लभ सामग्री है। हमने यूं भी उसे कबाड़खाना पर ही सजाने का सोचा था, पांडे जी का आदेश था कि यह काम जल्द अज़ जल्द हो जाए। शब्दों का सफ़र से फुर्सत कम ही मिलती है...फिर भी साझेदारी के सुख से न हम महरूम रहना चाहते हैं और हमसफरियों और कबाड़ियों को रखना चाहते हैं।
पेश है इस श्रंखला की पहली किस्त। हिन्दी रंगमंच की दुनिया का जाना माना नाम है प्रतिभा अग्रवाल का। कोलकाता के श्यामानंद जालान के साथ मिलकर भारतीय रंगमंच के लिए ऐतिहासिक महत्व का काम किया है। प्रतिभाजी ने 1978 से 1981 के दरम्यान मास्टरजी के साथ लगातार कई बैठकें कर उनके अतीत की यात्रा की। मास्टरजी के स्वगत कथन और बीच बीच में प्रतिभाजी के नरेशन की मिलीजुली प्रस्तुति बनी एक किताब जो मास्टरजी के जीवन के बारे में और इस बहाने पारसी रंगमंच की परम्परा और नाट्य परिदृश्य की जानकारी देनेवाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यहां इस पुस्तक के चुने हुए दिलचस्प अंश प्रस्तुत किए जा रहे हैं।


फिदा हुसैन साहब को बचपन से गाने का शौक था। कहीं से सुर कान में पड़ा फिर उनके लिए अपने को रोक पाना कठिन होता था। और जन्म हुआ था एक ऐसे खानदान में जो हाजी-हाफिजों का था और जिसमें गाने-बजाने की सख्त मुमानियत थी। अंदाज लगा सकते हैं रोज के वाकये का। कहीं गाने-बजाने की भनक पड़ी और फिदा हुसैन दौड़ पड़ते थे सबकी आखें बचाकर। पर पता तो चल ही जाता था और खूब पिटाई होती थी। पिटाई होती थी तो ये उस वक्त तौबा भी करते थे पर फिर जहां कानों में सुर पड़ा कि सब कुछ भूल जाते थे। सन 1911 का वाकया है। दिल्ली में पंचम जार्ज का दरबार हुआ था। देश के कोने -कोने से फनकारों को बुलाया गया था दिल्ली तमाशा दिखाने के लिए। दरबार खत्म होने पर सब अपनी-अपनी जगह को लौटे तो रास्ते में जगह-जगह रुक-रुककर तमाशा भी दिखाते चले। उनमें कठपुतली का तमाशा दिखाने वाले थे, नट का खेल दिखाने वाले थे, जादू का खेल दिखाने वाले थे।

दिल्ली से लौटने वाले मुरादाबाद भी पहुंचे और एक दिन इनके मुहल्ले में ही कठपुतली का खेल हुआ। खाट खड़ी करके, चादर बांध कर खेल दिखाया गया। कहानी थी किसी बादशाह की। बादशाह था, उसका वजीर था, सिपहसालार था, सेनापति था। कुछ कहासुनी हुई, एक दूसरे से झगड़ा हुआ और तलवारबाजी हुई। अच्छा लगा। खेल में कहानी थी और वह मन पर ऐसी छा गई कि घर आकर वही हरकतें शुरू कर दीं। कहने का मतलब यह कि नाटक और एक्टिंग की शुरुआत यहीं से हुई। खैर, यह किस्सा तो आया गया खत्म हो गया पर गाने का शौक बना रहा। रोज कहीं न कहीं सुनने पहुंच जाते और घर में पता लगने पर पिटाई होती। मां का तब तक स्वर्गवास हो चुका था, पर पिता थे, बड़े भाई थे। सबसे बड़े भाई की शादी भी हो चुकी थी। एक बार जब वे फिदा हुसैन की हरकतों से तंग आ गए तो उन्होंने बीवी के हाथों इन्हें पान में सिंदूर दिलवा दिया ताकि आवाज बंद हो जाए। वह किस्सा फिदा हुसैन साहब की जुबानी सुनिए।

``जब मैनें गाने का शौक नहीं छोड़ा तो तंग आकर भाई साहब ने भाभी के जो मुझे बहुत प्यार करती थीं, उनके हाथों से मुझे पान में सिंदूर दिलवा दिया कि आवाज ही खत्म हो जाए। और लोग भी एतराज करते थे। तो मेरी आवाज बंद हो गई। करीब चार-पांच महीने तक मेरी ये हालत रही कि मैं सांय-सांय बोलता, सर पटकता था। मगर आवाज ही नहीं। और दवाईयां जितनी कर सकता था की। लेकिन कुछ हुआ नहीं, पर लगन मेरी थी। मैं एकांत में रोता था और ईश्वर से प्रार्थना करता था कि मुझे दुनिया की कोई चीज नहीं चाहिए, बस मेरा सुर ठीक हो जाए। पर वह ठीक ही न हो। कुछ रोज के बाद जन्माष्टमी पड़ी। हमारे मुरादाबाद में किला का मंदिर है। वहां जन्माष्टमी के समय मंडलियां आती हैं, संत लोग आते हैं। तो वहां एक संत आए हुए थे। उनकी बड़ी हस्ती थी।

मैं इस तलाश में रहता था कि कोई मिले, मुझे कोई उपाय बता दे। मतलब बड़ी बुरी हालत थी। तो में वहां पहुंच गया। चौरासी घंटा मुहल्ला है मेरे मुहल्ले के पीछे ही, वहीं पहुंच गया। देखा, धूप में चबूतरे के ऊपर एक विशाल मूर्ति , बहुत सफेद दाढ़ी। वे तकिया लगाकर चारपाई पर बैठे थे और एक आदमी उनका पैर दबा रहा था। वहां बल्लम का पहरा था, भाला लेकर संतरी खड़ा था। मैं अंदर दरवाजे में जाने लगा तो उन लोगों ने रोक दिया और मैं परेशान कि क्या करुं । फासला था फिर भी उनकी नजर मुझ पर पड़ गई। उन्होंने कहा `आने दो, आने दो। मतलब ये कि जानते हुए भी कि मुसलमान है, इसीलिए इसको रोक रहे हैं, उनके मुंह से निकला `आने दो, आने दो। मैं पास आ गया। आने के साथ उनके पैर पकड़कर, पैर फैला था इतना, रोने लगा। और लोगों ने कहा कि , `ठहरों इसे अलग करों तो उन्होंने कहा `नहीं, रो लेने दो, इसका मन हलका हो जाने दो।

मैं दो-तीन मिनट तक रोता रहा। उसके बाद एक शेख खड़े थे वहां पे, उन्होंने कहा- साहब का कंठ खराब हो गया है। इसका कंठ बहुत अच्छा था। भजन-वजन में भी कभी-कभी आता था ये। तो बोले अच्छा । पास बुलाया, बोले-`कैसे हुआ। सब बता दिया तो बाले- `अच्छा दवा तो मैं खास कोई नहीं बताऊगा। एक साधना बताता हूं और संभव है कि उससे तुमको फायदा पहुंचे, लाभ मिल जाए। दवा में सिर्फ ये है कि जिसने तुमको सिंदूर दिया है (भाभी ने) उसके ही हाथ से पक्का केला घी में तलवाकर तीन रोज तक खाओ। और साधना यह कि कुएं के ऊपर लेटकर, गर्दन कुएं में लटका कर जब तक तुम्हारा सुर साफ न हो जाए सुर भरो, आ-आ करते रहो। मैं लौट आया। मकान के बाहर कुआ था। वहां तो मैं ये कर नहीं सकता था। पास ही एक जगह थी जहां कोई नहीं जाता था। पास ही एक जगह थी, जहां कोई नहीं जाता था। वहां दसमा घाट है। वहां के लिए मशहूर था कि खजूर पर कोई भूत रहता है। लेकिन मैं तो भूत-वूत को नहीं मानता था। मैं दोपहरी में वहां पहुंच जाता। एकांत रहता। कुएं पर लेटकर आ-आ करता। कोई 10-20 रोज तक यह करता रहा, पर कोई फायदा नहीं पहुचा। केले की दवा भी कर ली थी लेकिन कुछ हुआ नहीं। पर मैं हिम्मत नहीं हारा। उन्होंने कहा था जब तक न हो करते रहना। मुझे उनका कहना याल में था। कोई 20 रोज के बाद 21 दिन मुझे मालूम हुआ कि आवाज कुछ शुरू हुई। 26 दिन के अंदर्र-अंदर मेरा गला साफ हो गया। जैसा सुर वैसा फिर हो गया। जारी

ऊपर का चित्र कश्मीर हमारा है नाटक का।

Tuesday, April 28, 2009

पप्पुओं की चुनावी चकल्लस

यह कैसा चुनाव है, जिसमें चुनने को कुछ है ही नहीं। दिल्ली में सरकार किसकी और कैसी बनेगी- मीडिया के मुंहजोर विशेषज्ञ ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बता रहे हैं- इस बात का फैसला वोटिंग मशीनों से नहीं, कहीं और से निकलने वाला है। चुनाव बाद कौन कितनी सीटें लेकर आता है, फिर किसके बीच कैसे समीकरण बनते हैं, इन समीकरणों को बनाने में थैलियों का कैसा और कितना रोल बनता है, इससे तय होगा कि सरकार किसकी बनेगी। कैसा चुनाव है यह, जिसमें शुरू से ही तय है कि न कोई पक्ष जीतने वाला है, न कोई हारने वाला है, सारा कुछ बस ऊपर से तय होने वाला है।

इस परिघटना को क्या कहें, सिवाय इसके कि दो-ढाई दशक पहले शुरू हुई एक प्रक्रिया इसी तरह अपनी परिणति तक पहुंच रही है। जनता सरकार के पतन के बाद लौटी इंदिरा गांधी राजनीति का जो नया हमलावर मुहावरा अपने साथ लाई थीं उसकी पूर्णाहुति उन्हें अपना शरीर देकर चुकानी पड़ी। उसे जारी रखना राजीव गांधी के बूते से बाहर था, अलबत्ता श्रीलंका में उन्होंने अपनी एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली भकचोन्हर स्टाइल में इसे जारी रखने की कोशिश जरूर की थी।

राजनीति को आक्रामक मुहावरों से चार्ज रखने के बजाय उन्होंने खुद को राजनीति के थपेड़ों में टपले खाने के लिए छोड़ दिया और अपने लिए एक राजनीति-निरपेक्ष करीअरिस्ट कांस्टिटुएंसी बनाने की कोशिश की। लेकिन यह काम रातोंरात नहीं हो सकता था। कहें तो यह बीस साल बाद, यानी कुछ हद तक अब जाकर संभव हुआ है, जब उसे संभालने-सहेजने वाला कोई नहीं है।

पंचायती राज से लेकर कंप्यूटर तक राजीव गांधी के सारे प्रयोग देख जाइए- सभी के कुछ अच्छे नतीजे भी देश के लिए निकले हैं, जिन्हें आधार बनाकर उन्हें स्वप्नदर्शी वगैरह बताया जा सकता है, बताया जा भी रहा है। लेकिन इनका दूसरा पक्ष यह है कि पंचायती राज ने गांवों के स्तर पर भ्रष्टाचार, हिंसा और गैर-जवाबदेही को असाधारण ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है , जबकि सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के इर्दगिर्द नए-नवेले पैसे वालों की ऐसी जमात खड़ी हो गई है जो अमेरिका में खड़े होकर सोचती है और भारत को अपने रीयल एस्टेट की तरह देखती है।

बिजली-सड़क-पानी नाम का जो महामंत्र मीडिया पिछले सात वर्षों से जप रहा है, उसका एक पहलू यह भी है कि इन मामलों में कुछ करते हुए दिखिए, फिर चाहे जो कीजिए- आपका नरेंद्र मोदी होना भी माफ है। गांवों में यह प्रधानों और प्रधानपतियों का और शहरों में दो या तीन बेडरूम वाले ब्रह्मांड के महानायकों का लोकतंत्र है, जिनके बारे में पंकज मिश्र की किताब बटर चिकन इन लुधियाना और पवन वर्मा की द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास अच्छी खिड़कियां खोलती हैं।

राजीव गांधी के दौर की ही दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि सत्ता शिखर का भ्रष्टाचार है, जिसने राजनीति में नैतिकता की रही-सही हुड़क को भी समाप्त कर दिया। हर छह में से एक उम्मीदवार करोड़पति होने के जो आंकड़े छप रहे हैं, उससे किसी को कोई आक्रोश नहीं है। अगर आप राजनीति में हैं और जाहिर तौर पर आपके खिलाफ किसी बहुत बड़े भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है तो आप देश पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैं। और अगर आरोप हो भी तो चिंतित होने की कोई बात नहीं है। जिन संस्थाओं से आपको ऐसा कोई डर हो सकता है, वे सब आपको बचाने के लिए जी-जान लड़ा देंगी, शर्त सिर्फ इतनी है कि आप किसी तरह सत्ता में पहुंच जाएं या उसके नजदीकी बन कर रहें।

राजीव गांधी के बाद की राजनीति में मंदिर आया, मंडल आया, बहुजन क्रांति आई, लेकिन ये सभी अब धीरे-धीरे जा रहे हैं। समाज में इनकी छापें लंबे समय तक रहेंगी लेकिन राजनीति में अब सारा कुछ उसी लेवल प्लेयिंग फील्ड में घटित होगा, जिसकी रचना राजीव गांधी करके गए हैं। देश की अस्सी फीसदी आबादी की छाती पर बुलडोजर की तरह फिरता एक या दो प्रतिशत सुपर अमीरों का लोकतंत्र, जिनके पीछे अट्ठारह-उन्नीस फीसदी मिडल क्लास झाल बजाता घूम रहा है।

बाकी लोगों के लिए चुनाव में चलने वाली कच्ची दारू है, टंडन के जलसे में बंटने वाली साड़ी है, छोटे-मोटे अपराध हैं, आत्महत्याएं हैं, पागलपन और भिखमंगापन है। ऐसे लोग वोट दें भी तो क्या, और न दें तो भी क्या- पप्पू लोग तो उन्हें पप्पू कह कर ही बुलाएंगे- और मई या जून की किसी तारीख को जब दिल्ली में उनकी मर्जी की सरकार बन चुकी होगी तो इसे लोकतंत्र की विजय बताएंगे।

गर्मी में मियां की मल्हार


इधर कई दिनों से भीषण गर्मी पड़ रही है. बारिश का नामोनिशान नहीं. तीन-चार दिनों से पहाड़ों पर आग लगने का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला भी शुरू हो गया है.

गर्मी का कोई क्या करे साहब?

हां पंखा चलाकर मियां की मल्हार को तो सुना ही जा सकता है. कल्पना तो की ही जा सकती है मेघाछन्न आकाश की ... और बारिश की! यह प्रस्तुति पंडित विनायक तोरवी के स्वर में है.

१९४८ में जन्मे पंडित विनायक तोरवी को ग्वालियर घराने के गायनाचार्य गुरुराव देशपाण्डे का शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. महान गायिका गंगूबाई हंगल के अतिरिक्त पं. मल्लिकार्जुन मंसूर और पं. बासवराज राजगुरु जैसे संगीतज्ञों से भी उन्होंने गायन की बारीकियां जानीं. फ़िलहाल पं. तोरवी शास्त्रीय गायन के साथ ही कन्नड़, मराठी और हिन्दी में भक्ति संगीत और सुगम संगीत के साथ नवीन प्रयोग करने में व्यस्त हैं

कई सम्मानों से नवाज़े जा चुके पं. तोरवी वाणिज्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त हैं और कैनरा बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर हैं.



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Monday, April 27, 2009

वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड - भाग दो

पिछली पोस्ट से जारी:



मेन्दोज़ा: चलो किताब के बारे में बात करते हैं, बुएनदीया परिवार का एकाकीपन आता कहां से है?

मारकेज़: मेरे विचार से प्रेम की कमी से. तुम देख सकते हो कि पूरी शताब्दी में सुअर की पूंछ वाला ऑरेलियानो जन्म लेने वाला इकलौता बुएनदीया है. बुएनदीया लोग प्रेम करने में असमर्थ थे और यही उनकी कुंठा और एकाकीपन की कुंजी है. मैं मानता हूं कि एकाकीपन, भाईचारे का विलोम है.

मैं वह सवाल तुमसे नहीं करूंगा जो हर कोई करता है-कि किताब में इतने सारे ऑरेलियानो और इतने सारे होसे आरकादियो क्यों हैं - क्योंकि हम दोनों जानते हैं कि यह एक लातीन अमरीकी परंपरा है. हम सब के नाम हमारे पिताओं और दादाओं के नाम पर रखे जाते हैं और तुम्हारे परिवार में तो यह परम्परा सनक की इस हद तक पहुंची कि तुम्हारा एक अपना भाई गाब्रीएल के नाम से जाना जाता है. पर मैं समझता हूं कि ऑरेलियानो नाम के लोगों को होसे आरकादियो लोगों से फ़र्क करने में एक सूत्र है. क्या है वह?

बहुत आसान है. होसे आरकादियो नाम के लोगों के बच्चे होते हैं और ऑरेलियानों के नहीं. सिर्फ़ एक अपवाद है - होसे आरकादियो सेगुन्दो और ऑरेलियानो सेगुन्दो. ऐसा शायद इसलिये है कि एक समान जुड़वां होने के नाते जन्म के समय ही उनमें कुछ अदल-बदल हो गई थी.

किताब में पुरुषों के भीतर तमाम खोट हैं (खोजें, कीमियगरी, युद्ध, पीने के दौर) और स्त्रियों में समझदारी. क्या दोनों को तुम इसी तरह देखते हो?

मेरा मानना है कि स्त्रियां संसार को टूटने से बचाए रखती हैं जबकि पुरुष इतिहास को आगे ले जाने का प्रयास करते हैं. अंत में आप हैरत करते हैं कि दोनों में से ज्यादा सनकी कौन है?

स्त्रियां न सिर्फ अगली पीढ़ियों की सुनिश्चितता तय करती हैं बल्कि उपन्यास की भी. क्या शायद यही उसुZला की असाधारण लम्बी जिन्दगी का रहस्य नहीं?


हां, उसने गृहयुद्ध से पहले मर जाना चाहिये था जब वह सौ साल की होने वाली थी पर मुझे अहसास हुआ कि यदि उसकी मौत हो गई तो किताब ढह जायेगी. जब वह अंतत: मरती है, किताब में इतना उबाल आ चुका होता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आगे क्या होगा?

किताब में पेत्रा कोट्स की क्या भूमिका है?

सतही तौर पर आप उसे फर्नांदा की छवि के तौर पर देख सकते हैं, एक कैरिबियाई स्त्री जिसे आन्देस की स्त्रियों के प्रति कोई नैतिक पूर्वाग्रह नहीं है. लेकिन मैं समझता हूं उसका व्यक्तित्व बहुत कुछ उर्सुला जैसा है - वह सच्चाई के ज्यादा मोटे तौर पर समझने वाली उर्सुला है.

मैं मानता हूं कि जब तुम किताब लिख रहे थे, कई चरित्र उससे अलग बनकर सामने आये होंगे जैसा तुमने पहले तय किया होगा. क्या तुम कोई उदाहरण दे सकते हो?

हां एक तो सान्ता सोफिया दोन्या पियेदाद का होगा. किताब में, जैसा कि वास्तविकता में हुआ था, मैंने सोचा था कि जब उसे पता लगेगा कि उसे कोढ़ है वह बिना किसी को बताये घर छोड़कर चली जायेगी. हालांकि उस चरित्र का पूरा व्यक्ति समर्पण और स्व-अस्वीकार से निर्मित है, जिसके कारण यह अन्त विश्वसनीय लगता पर मुझे लगा कि मुझे इसे बेहतर बनाना होगा. वह काफी क्रूर लग रहा था.

क्या कोई चरित्र कतई बेकाबू हुआ?

तीन बेकाबू हो गये थे पूरी तरह - इस मायने में कि उनका जीवन और व्यक्तित्व वैसा सामने नहीं आया जैसा मैंने तय किया था. ऑरेलियानो होसे का अपनी आन्ट आमारान्ता के लिये प्रेम मेरे लिये हैरान करने वाला था( होसे ऑरकादियो सेगुन्दो बनाना वर्कर यूनियन का ऐसा नेता नहीं था जो मुझे पसन्द आता( और प्रशिक्षु पोप होसे ऑरकादियो एक ऐसे एडोनिस के रूप में बदल गया जो किताब में जंचता नहीं.

हममें से जो इस किताब के कुछ सूत्रों को जानते हैं, इस बात को महसूस कर सकते हैं कि एक क्षण आता है जब माकोन्दो एक कस्बा, तुम्हारा कस्बा नहीं रह जाता और एक नगर बन जाता है - बारान्कीया. क्या तुमने वहां के किसी परिचित व्यक्ति या स्थान को वहां रखा? इस बदलाव से तुम्हें कोई दिक्कतें तो नहीं आई?

माकोन्दो जगह की बनिस्बत एक मन:स्थिति ज्यादा है, सो कहानी को कस्बे से शहर में ले जाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई - न ही किताब के माहौल में कोई परिवर्तन आया.


उपन्यास में तुम्हारे लिये सबसे मुश्किल क्षण कौन सा था?

शुरूआत करना. मुझे वह दिन अच्छे से याद है जब मैं बहुत मुश्किल के बाद पहला वाक्य पूरा कर पाया था और भयभीत होकर मैंने अपने आप से पूछा कि आगे क्या होने वाला है. असल में, जब तक जंगल के बीच वह गलियारा नहीं खोजा गया था, मैं नहीं सोचता था कि किताब का कुछ बन पायेगा. पर उसके बाद किताब लिखना एक तरह का पागलपन बन गया - हालांकि उसमें आनन्द भी आया.

क्या तुम्हें वह दिन याद है जब तुमने उसे खत्म किया? कितना बजा था? तुम्हें कैसा लगा?

अठारह महीनों तक मैं सुबह नौ से दोपहर तीन तक हर रोज लिख रहा था. मुझे पता था कि वह अंतिम दिन था पर किताब अपने नैसर्गिक अन्त पर गलत वक्त पर पहुंची - सुबह करीब ग्यारह बजे. मेरसेदेज़ घर पर नहीं थी और मुझे फोन पर कोई नहीं मिला जिसे मैं इस बारे में बता पाता. मुझे अपनी हैरत बिल्कुल अच्छे से याद है, मानो वह कल घटा हो. मुझे पता नहीं था कि समय के साथ क्या किया जाय, सो तीन बजे तक जिन्दा रहने के लिये मुझे कई तरह की चीजों की खोज करनी पड़ी.

इस किताब के कुछ आयाम जरूर होंगे जिन्हें आलोचकों ने (जिनसे तुम इतनी नफरत करते हो) नजरअन्दाज कर दिया होगा. कौन हैं वे आयाम?

एक तो किताब की सबसे उत्कृष्ट बात है - अपने बेचारे पात्रों के लिये लेखक की उद्दाम भावनाएं.

तुम्हारे ख्याल से तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ पाठक कौन है?

मेरे एक रूसी दोस्त की मुलाकात एक स्त्री से हुई. एक बहुत बूढ़ी स्त्री से जो किताब को हाथ से प्रतिलिपि बना रही थी - आखिरी पंक्ति तक. मेरे दोस्त ने उससे पूछा कि वह क्यों ऐसा कर रही है. वह बोली, "क्योंकि मैं जानना चाहती हूं कि वास्तव में पागल कौन है - लेखक या मैं, और यह जानने के लिये किताब को दुबारा लिखना पड़ेगा." मुझे इससे बेहतर पाठक की कल्पना करना मुश्किल लगता है.


कितनी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है?

सत्रह.

कहते हैं कि अंग्रेजी अनुवाद बढ़िया हुआ है?

हां, बहुत बढ़िया है. अंग्रेजी में भाषा सघन होकर ज्यादा ताकतवर हो गई है.

और बाक़ी अनुवाद?

मैंने फ्रांसीसी और इतालवी अनुवादकों के साथ थोड़ा काम किया था. दोनों अच्छे अनुवाद हैं हालांकि कम से कम मेरे लिये फ्रांसीसी में किताब में वैसी बात नहीं है.

फ्रांस में यह बहुत ज्यादा नहीं बिकी है - इंग्लैण्ड और इटली के मुकाबले, स्पानी भाषी देशों को छोड़ दें तो, जहां यह असाधारण रूप से सफल हुई है. तुम्हारे ख्याल से ऐसा क्यों है?

शायद कार्तेसियाई परम्परा के कारण. मैं देकार्ते के अनुशासन के बदले राबेलाइस के सनकीपन के ज्यादा करीब हूं और फ्रांस में देकार्ते काफी प्रभावशाली है. शायद इसीलिये यह किताब फ्रांस में और देशों कितनी लोकप्रिय नहीं हुई, हालांकि वहां बढ़िया आलोचनाएं हुईं. रोसाना रोजान्दा ने एक बार मुझे कहा था कि सन् 1968 में जब यह किताब फ्रांस में छपी थी - व्यावसायिक सफलता के लिये वहां वह कोई उल्लेखनीय मौका नहीं था.

क्या तुम्हें `वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड´ की सफलता से हैरत होती है?

हां, बहुत ज़्यादा.

क्या तुमने कभी इसका रहस्य जानने की कोशिश की है?

नहीं, मैं जानना नहीं चाहता. मेरे ख्याल से यह पता करना बहुत ख़तरनाक होगा कि कोई किताब, जिसे मैंने बस कुछ करीबी दोस्तों को दिमाग़ में रखकर लिखा था, इस कदर बिक सकती है.

मुनीश जी की इस टिप्पणी और इसके प्रकाशन पर पर मैं कबाड़खाना छोड़ रहा हूँ !

पिछली पोस्ट पर मेरी टिप्पणी पर मुनीश जी की इस टिप्पणी और इसके प्रकाशन पर मैं कबाड़खाना छोड़ रहा हूँ। उम्मीद है मेरे इस फैसले से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये एक मूर्ख की विदाई है ! इसे इससे ज़्यादा कुछ न समझें ! सभी दोस्तों से मुआफी !
मेरी टिप्पणी : समकालीन हिन्दी साहित्य संसार के लिए ये सपनों सरीखी बातें हैं। बहुत बढ़िया पोस्ट- बहुत बढ़िया सपना ! "सपनों के सौदागर" ! मुझे लगता है कई सालों से प्रकाशित हो रही ये किताब इस साल पुस्तक मेले में आ जाएगी।
मुनीश जी की टिप्पणी : Some of them may be ur friends , but i feel the most unwanted people in the realm of literature are none but critics! Who are they to instruct people what to read and what not to! This 'kaum' has strangulated many a budding talent in the spring of their lives . Not everyone had the nerves of steel like Marquez.

वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड - भाग एक



गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ उर्फ़ गाबो के साक्षात्कारों पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक 'फ़्रैगरेन्स ऑफ़ गुवावा' के एक अध्याय से कुछ टुकड़े मैंने कभी यहां लगाए थे. मेरे संग्रह में कोई बीस किताबें ऐसी हैं जिन्हें मैं हर साल पढ़ता हूं - और यह सिलसिला पिछले बारह-तेरह सालों से जारी है. गाबो का कालजयी उपन्यास 'वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' किताबों की इस सूची में काफ़ी ऊपर आता है. कल देर रात इसे एक बार और पढ़ कर समाप्त किया.

'फ़्रैगरेन्स ऑफ़ गुवावा' का अनुवाद कई सालों से प्रकाशनाधीन है - किताब जब छपे, क्यों न आपको इस का वह हिस्सा पढ़वाऊं जिस में मारकेज़ ' वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' की बाबत बातें कर रहे हैं अपने अभिन्न मित्र और मशहूर कोलम्बियाई पत्रकार प्लीनीयो आपूलेयो मेन्दोज़ा से. ये लीजिए पहला हिस्सा. दूसरा रात में लगा दूंगा.





जब तुमने `वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड´ लिखना शुरू किया तुम क्या करना चाहते थे?

मैं उन सारे अनुभवों को साहित्य में व्यक्त करने की राह खोजना चाहता था, जिन्होंने एक बच्चे के तौर पर मुझ पर प्रभाव डाला था.

बहुत से आलोचकों को इस किताब के भीतर मानव जाति के इतिहास की जातक कथा या एक रूपक नजर आते हैं.

नहीं, मैं बस इतना करना चाहता था कि अपने बचपन के संसार की एक साहित्यिक छवि छोड़ना चाहता था जो, जैसा तुम्हें पता है एक बड़े, बेहद उदास घर में बीच था जहां एक बहन थी जो मिट्टी खाती थी, एक नानी थी जो भविष्यवाणियां किया करती थी, और एक ही नाम वाले असंख्य रिश्तेदार थे जिनके लिये प्रसन्नता और पागलपन के बीच बहुत फर्क नहीं था.

तो भी आलोचकों को कहीं जटिल उद्देश्य नजर आते हैं.

यदि वे हैं भी तो ऐसा करने की मेरी नीयत नहीं थी. होता ये है कि लेखकों के बरअक्स आलोचकों को किताब में अपनी मनचाही चीज मिल जाती है, वह नहीं जो उसमें सचमुच है.

तुम आलोचकों के बारे में बहुत विडंबनापूर्ण बातें करते हो. तुम उन्हें इतना नापसंद क्यों करते हो?

क्योंकि ज्यादातर आलोचक इस बात को नहीं समझते कि `वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड´ एक तरह का लतीफ़ा है, जिसमें नजदीकी मित्रों के लिये कई संकेत है( सो किसी अधिकार के कारण वे किताब को `डीकोड´ करने का काम अपने ज़िम्मे ले लेते हैं और आख़िरकार मूर्खों जैसे नज़र आने लगते हैं.

मिसाल के तौर पर मुझे याद है कि एक आलोचक को लगा था कि उसे उपन्यास का सूत्र मिल गया है जब उसने गौर किया कि एक पात्र - गाब्रीएल - राबेलाइस की सम्पूर्ण कृतियां पेरिस ले जाता है. इस खोज के बाद उसने साहित्यिक प्रभाव को अतिरंजित किया. मैंने राबेलाइस की उपमा के बतौर इस्तेमाल किया है और ज़्यादातर आलोचक इस बात को देख नहीं पाये. इस बात को दरकिनार करके कि आलोचक क्या कहते हैं मेरे ख्याल से उपन्यास तुम्हारे बचपन की स्मृतियों की काव्यात्मक पुनर्रचना के आगे भी कुछ है. क्या तुमने एक बार नहीं कहा था कि बुएनदीया परिवार की कहानी लातीन अमरीकी इतिहास का वृतांत हो सकता है?

हां, मेरे विचार से ऐसा ही है. लातीन अमरीकी इतिहास भी भीषण बेकार उद्यमों से भरा हुआ है और उन महान नाटकों से भी जिन्हें घटने से पहले ही खारिज कर दिया गया. हमें स्मृति के ह्रास की हैजे की बीमारी भी है. समय बीतने पर कोई याद नहीं रखता कि बनाना कंपनी के कर्मचारियों का हत्याकांड वाकई हुआ था, उन्हें सिर्फ कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया की याद आती है.

और जो तैंतीस युद्ध कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया ने हारे सम्भवत: हमारी अपनी राजनीतिक कुंठा की अभिव्यक्ति हो सकते हैं, अगर कर्नल जीत गया होता तो क्या होता?

वह पैट्रिआर्क जैसा होता. उपन्यास को लिखते वक्त एक दफे मुझे लालच आया कि कर्नल को सत्ता मिल जाये. ऐसा होता तो मैंने `वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड´ की जगह `द ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्क´ लिखा होता.

तो क्या हम यह मान लें कि भाग्य की किसी ऐतिहासिक सनक के कारण जो भी तानाशाही के खिलाफ लड़ता है, खुद सत्ता में आने के बाद तानाशाह बन जाता है?

`वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड´ में कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया का एक बन्दी उससे कहता है, "मुझे फिक्र इस बात की है कि सेना की प्रति तुम्हारी इतनी घृणा, उससे इतना लड़ चुकने और उसके बारे में इतना सोच लेने के बाद तुम भी वैसे ही बन चुके हो". अन्त में वह कहता है, "इस हिसाब से तुम हमारे इतिहास के सबसे बड़े खूनी तानाशाह हो."

क्या यह सच है कि तुमने यही उपन्यास तब लिखना शुरू किया था जब तुम अठारह के थे?

हां, `द हाउस´ नाम था उसका क्योंकि मैंने सोचा था कि पूरा घटनाक्रम बुएनदीया परिवार के घर के भीतर घटेगा.

उसमें तुम कहां तक पहुंचे थे? क्या तुमने सौ सालों के बारे में लिखने का सोचा था?

मैं किसी खाके तक नहीं पहुंच पाया. मैं कुछ टुकड़े अलग कर पाया, जिनमें से कुछ उस अख़बार में छपे जहां मैं उन दिनों काम करता था. सालों की संख्या से मुझे कभी चिन्ता नहीं हुई. मुझे ख़ुद नहीं पता कि असल में `वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सॉलीट्यूड´ में सौ सालों की कहानी है या नहीं.

तुमने तभी उसे लिखना जारी क्यों नहीं रखा?

क्योंकि तब उस तरह की किताब लिखने के लिये न मेरे पास पर्याप्त अनुभव था न शक्ति न ही तकनीकी कौशल.

लेकिन वह कहानी तुम्हारे दिमाग में घूमती रही थी.

पन्द्रह सालों तक. मुझे सही कहानी नहीं मिल पाई थी. उसने मेरे कानों में सही-सही गूंजना था. एक दिन जब मैं मेरसेदेज और बच्चों के साथ आकापुल्को की तरफ गाड़ी से जा रहा था, वह एक कौंध की तरह मेरे दिमाग में आई. मुझे वह कहानी उसी तरह सुनानी थी जैसी मेरी नानी सुनाया करती थीं. मैं उसी दोपहर से शुरू करने वाला था जब छोटे बच्चे को उसके नाना बर्फ खोजने ले जाते हैं.

एक एकरेखीय इतिहास

एक एकरेखीय इतिहास जिसमें असाधारण तत्व सामान्य चीजों में जज़्ब हो जाते हैं, अपनी पूरी सादगी के साथ.

क्या यह सच है कि तुमने गाड़ी मोड़ ली थी और तुरन्त लिखना शुरू कर दिया था?

सच है. मैं कभी आकापुल्को नहीं पहुंच पाया.

और मेरसेदेज़?

तुम जानते हो मेरसेदेज़ ने मेरे कितने सारे ऐसे पागलपन बर्दाश्त किये हैं. उसके बिना मैं किताब नहीं लिख सकता था. उसने चीज़ों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया. मैंने कुछ ही महीने पहले कार खरीदी थी, सो उसे जमानत पर दे कर मैंने उसे पैसे दे दिया. मुझे लगा था कि मैं छ: महीने लूंगा पर किताब पूरा करने में मुझे डेढ़ साल लगे. जब पैसा ख़त्म हो गया उसने एक शब्द भी नहीं कहा. मुझे नहीं पता कि वह कैसे कर पाई लेकिन उसने कसाई को उधार पर मांस देने को, नानबाई को उधार पर डबलरोटी देने को और मकान मालिक को किराये के लिये नौ महीने रूके रहने पर राजी कर लिया. उसने मुझे बताये बिना हर चीज की देखरेख की और जब-तब मेरे लिये पांच-पांच सौ कागजों का बण्डल लाया करती थी. उन पांच सौ पन्नों के बिना मैं कभी नहीं रहा. जब किताब ख़तम हो गई तो यह मेरसेदेज़ थी जिसने पाण्डुलिपि को डाक से एदीतोरियाल सूदामेरिदाना भेजा.

उसने मुझे एक बार बताया था कि पाण्डुलिपि को डाकखाने ले जाते हुए उसने सोचा था `अगर यह किताब इतने सब के बाद उतनी अच्छी न हो पाई तो?´ मैं नहीं समझता उसने उसे पढ़ा था. पढ़ा था क्या?

नहीं, वह पाण्डुलिपियां पढ़ना पसन्द नहीं करती.

वो और तुम्हारे बेटे अक्सर तुम्हारी किताबें पढ़ने वाले आखिरी लोग होते हैं. मुझे बताओ, क्या तुम्हें निश्चित पता था कि यह किताब सफल होगी?

मुझे पता था कि आलोचकों को किताब पसंद आयेगी पर इतनी सफलता के बारे में नहीं सोचा था. मुझे लगा था कि वह करीब पांच हजार बिक जायेगी (तब तक मेरी बाक़ी किताबें की सिर्फ हजार प्रतियां बिकी थीं). एदीतोरियाल सूदामेरिकाना ज्यादा आशावान था - उनके ख्याल से किताब आठ हजार बिक सकती थी. असल में किताब का पहला संस्करण अकेले बुएनोस आयरेस में दो हफ्ते में बिक गया.

Sunday, April 26, 2009

गिरगिट जी के संग लुकाछिपी के रंग

एक हैं गिरगिट जी। ये साहब शकल - सूरत , भाव - भंगिमा से कुछ 'कवी' टाइप के जीव लग रहे है... और कई इनों से इस नाचीज को ठग रहे हैं .....
ये सब जगह पाए जाते हैं, हमारे आसपास और हमारी हिन्दी भाषा के मुहावरों की दुनिया में भी। पारखी नजर के स्वामी इन्हें इंसानों की फितरत में भी देख लेते हैं। अगर कभी एकांत में अपने से बतियाने का मौका मिले तो इन्हें खुद के भीतरी तह में भी देखा जा सकता है। किस्से -कहानियों में तो इनकी मौजूदगी आम है। इस समय इनकी बहार है और ये सबसे कहते फिर रहे हैं - कहो ना प्यार है !
एक गिरगिट जी हमारे घर के नन्हें बगीचे में कुछ दिनों से विश्राम किए हुए हैं।नाम -गाम पूछने पर आँखें मटकाते हैं और गरदन हिलाते हैं। अभी दोपहरी में जब हल्के बादल छाए हैं तब हमने इनका शिकार करने की जुगत भिड़ाई और गोली बंदूक तो अपने पास है नहीं , बरछी ,गँड़ासा ,कटार भी नहीं किन्तु कैमरा तो है , सो कर डाला शिकार। ल्यो जी ! आप भी मिलो इन प्यारे- न्यारे गिरगिट जी से.....
काम से आराम
पत्तों के बिछौने पर
पल भर विश्राम !
यह जो कनेर का तना है
फिलहाल
यही अपना घर बना है
रात की रानी की झाड़
दे रही है
धूप -घाम से आड़

सोचो
सोचने में क्या जाता है
खर्च धेला नहीं
मजा भरपूर आता है
क्या है उस पार ?
शायद नफरत
शायद प्यार
जी में उमड़ रही है शायरी
पास न कागज - न कलम
हाय किस्मत ! हाय री !

किसी गिरजाघर में चली जाओ या शादी कर लो किसी बेवकूफ़ से


अन्ना अख़्मातोवा के नाम से कबाड़ख़ाने के पाठक अपरिचित नहीं होंगे. मैंने उनकी कुछेक रचनाएं यहां लगाई हैं. इत्तेफ़ाक से आज कुछ और खोजते ढूंढते मुझे एक बार फिर गुलाबी कवर वाली उनके अनुवादों की पाण्डुलिपि मिल गई. ये अनुवाद पता नहीं कितने सालों से पड़े हैं. किताब की शक्ल में कब आएंगे, मुझे नहीं पता. फ़िलहाल अन्ना की एक और कविता.


'हैमलेट' पढ़ते हुए

एक.

कब्रों के पास का इलाका धूलभरा और गर्म था
पीछे नदी - नीली और ठण्डी,
तुमने मुझसे कहा - "किसी गिरजाघर में चली जाओ
या शादी कर लो किसी बेवकूफ़ से ..."

ऐसे ही बोला करते हैं राजकुमार - अपनी भयंकर निर्विकार आवाज़ में
मगर इन छोटे से शब्दों को संजो कर धरा हुआ है मैंने
काश ये शब्द बहते रहें चमकते रहें हज़ारों साल
जैसे कन्धों पर होता है फ़र का लबादा.

दो.

और, जैसे बेमौके
मैंने कहा, "आप ..."
प्रसन्नता की कैसी मुस्कान
फैल गई उस चेहरे पर

कही गई या सोची गई इस तरह कह दी गई बातों से
जल उठेगा हरेक गाल
मैं तुम्हें उन चालीस बहनों की तरह प्यार करती हूं
जो प्यार करती थीं और आशीष देती थीं.

Saturday, April 25, 2009

भाजपा जितना दोहरा चुकी है उससे अब उसे ज्यादा फ़ायदा नहीं

भाजपा जितना दोहरा चुकी है उससे अब उसे ज्यादा फ़ायदा नहीं. बद्री ने कहा था कि 'हिंस्र आत्माएं पहचान ली जाती हैं' हिंस्र आत्माएं शायद पहचान ली जाएँ! दो चरणों का मतदान तो हो चुका. वरना राजेश जोशी के मुहावरे में कहें तो अब अपने ही लोगों द्वारा मारे जायेंगे.

ये आडवानी जी कौन है? इन्हें जब जिन्ना पर दिए अपने बयान के चलते भाजपा के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा था तो भाजपा के तमाम शीर्ष लोग इनको प्रणाम तक नहीं करते थे. ये इनके पीएम उम्मीदवार है!

भाषा की शालीनता सचमुच बरकरार रखनी चाहिए. शायद मैं ज्यादा तल्ख़ हो गया था. मित्रो यह संपादित पोस्ट है.

Friday, April 24, 2009

शिनाख्त़ करो दिल्ली में


सात सितम्बर १९५३ को उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे जसबीर चावला के पांच कविता संग्रह छप चुके हैं. प्रबन्ध शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री ले चुके जसबीर चावला की कविताओं पर इलाहाबाद से निकलने वाली अनियतकालीन लघुपत्रिका 'कथ्यरूप' ने एक पुस्तिका प्रकाशित की थी - 'एक टुकड़ा बादल'.कवि केदारनाथ सिंह ने इस की भूमिका लिखी थी.वे लिखते हैं: "प्रस्तुत कविताओं के रचयिता की एक खासियत यह भी है कि वह हिन्दी काव्य-परम्परा को जानता तो है पर उस से किसी भी स्तर पर आक्रान्त नहीं होता."

जसबीर चावला की कविताओं का यह संकलन बहुत सजग व्यक्ति की कविताओं से भरपूर है - आसपास के संसार को देखने की पैनी निगाह से लैस. उनकी बहुत सी कविताएं मुझे पसन्द आईं. यहां प्रस्तुत कर रहा हूं इस पुस्तिका से एक कविता:


आजकल दिल्ली

कोई भी वस्तु लावारिस हो सकती है -
इस लिए शिनाख़्त करो -
जहां बैठो नीचे झांको
जहां खड़े हो ऊपर झांको
जहां चलो आस-पास झांको
नज़र रखो -

कुछ भी पड़ा हो सकता है वैसे ही
ट्रांज़िस्टर, टिफ़िन, डब्बा,
सुर्ती-डिबिया, माचिस
या और ऐसा ही कुछ
बेमतलब ... और लावारिस
ख़तरनाक बम हो सकता है

आदमी न छुए
बस पहचान कर ले
रिपोर्ट कर दे अपना शुबहा
जिप्सी को
ईनाम जीत ले

पुलिस को तलाश है
लावारिस वस्तुओं की
वे ख़तरनाक हो सकती हैं
राजधानी में
पुलिस सफ़ाया कर देगी
खौफ़ की बू
ख़तरनाक चीज़ें
जिनका कोई वारिस नहीं.

शिनाख़्त करो -
इसलिए चीखो -
"किसकी है यह कलम?"
""किसकी है यह दवात?"
पुकारो - "कौन है यह अधमरा बूढ़ा?
किसकी है यह पोटली?
कौन है मालिक इस लुढ़के मनई का?
बौआई भीड़ का?
हेरायी बछिया का? अकुलाई जनता का?
कौन है माई-बाप इस बच्चे का?"

ख़बरदार! मानव-बम हो सकता है!

(कविता व फ़ोटो: साभार 'कथ्यरूप')

Thursday, April 23, 2009

गुलाब बाई के बहाने नौटंकी के एक विस्मृत अध्याय की चर्चा



मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी से सम्बन्धित पिछली पोस्ट की निरन्तरता में आगे जोड़ना चाहूंगा कि अपने ज़माने को बड़े कलाकारों को याद करते हुए मास्टर साहब अक्सर गुलाब बाई का ज़िक्र किया करते थे. मास्टर साहब को इस बात की टीस थी कि मौजूदा ज़माने की तड़क-भड़क और इलैक्टोनिक संगीत के शोर में नौटंकी के क्षेत्र में गुलाब बाई के अविस्मरणीय योगदान को लोग भूल गए हैं.

मेरे लिए गुलाब बाई के बारे में कुछ भी जानकारी तब हासिल कर पाना भूसे के ढेर में ऑलपिन खोजने जैसा था. तब न इन्टरनेट इस कदर प्रचलन में था और दिल्ली-बम्बई के कला-संस्कृति के गुप्त ठीहों पर हम जैसे स्मॉल-टाउन लौंडे-मौंडों को कोई घास डालता था.

पिछले विश्व पुस्तक मेले में मैंने पेंग्विन के स्टॉल से काफ़ी किताबें खरीदी थीं. उनमें से कुछ को पढ़ने का समय चाह कर भी नहीं निकल सका था. इधर एक सप्ताह पहले तीन-सवा तीन सौ पन्नों की जो किताब समाप्त की उसे पढ़ना जैसे एक अलग ग्रह पर किसी अलग ही कालखण्ड के किसी विस्मृत घटनाक्रम से रू-ब-रू होना था.

'गुलाब बाई: द क्वीन ऑव नौटंकी थियेटर' नाम की यह किताब उन्हीं गुलाब बाई का जीवनवृत्त है जिनके बारे में मास्टर फ़िदा हुसैन बताया करते थे. दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की लिखी यह किताब परम्पराओं के संरक्षण के क्षेत्र में किया गया एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है.

उत्तर प्रदेश के फ़र्रूखा़बाद ज़िले की रहने वाली गुलाब बाई ने सन १९३१ में अपने नौटंकी करियर का आगाज़ किया फ़कत बारह की आयु में. नौटंकी में उस से पहले महिलाओं के रोल पुरुष निभाया करते थे. इस लिहाज़ से गुलाब बाई को नौटंकी की पहली महिला कलाकार होने का गौरव प्राप्त है. वे अच्छी अभिनेत्री के साथ साथ उम्दा गायिका भी थीं. गायन-संगीत का ज्ञान नौटंकी कलाकारों के लिए ज़रूरी गुण माना जाता था. 'लैला मजनूं' में लैला, 'राजा हरिश्चन्द्र' में तारामती, 'बहादुर लड़की' में फ़रीदा और 'शीरीं फ़रहाद' में शीरीं जैसे रोल निभाने वाली गुलाब बाई सन १९४० तक आते आते अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच चुकी थीं. १९४० के दशक के आते आते गुलाब बाई की तनख़्वाह सवा दो हज़ार रुपये प्रति माह के आसपास थी, जो उस ज़माने के हिसाब से अकल्पनीय रूप से बड़ी रकम थी. उन्होंने इस रकम से अपने परिवार को सहारा दिया, गांव में एक आलीशान हवेली बनवाई और फूलमती देवी का मन्दिर स्थापित किया. १९५० के दशक के मध्य में उन्होंने अपनी कम्पनी- 'गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी' - का निर्माण किया.

नौटंकी की लोकप्रियता का ये आलम था कि रात १० बजे से शुरू होने वाले शोज़ सुबह ४-५ बजे तक चला करते और जवान-बूढ़े-बच्चे तम्बू के भीतर ठुंसे रहते. जहां नौटंकी होती थी वहां एक अनऑफ़ीशियल मेला जुटा रहता और अमूमन महीने भर तक चलता. कम्पनी हर रात नया खेल दिखाया करती.

... ख़ैर छोड़िये, इन तफ़सीलात के बारे में जानना हो तो किताब खोज कर पढ़ें. मैं कोशिश में हूं कि किसी तरह इस किताब के अनुवाद के अधिकार हासिल कर लूं और जल्द से जल्द हिन्दी के पाठकों के सम्मुख इसे रख सकूं. यह मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी के लिए मेरी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि भी होगी और गुलाब बाई के जीवन वृत्त के माध्यम से लोग क्रूरतापूर्वक बिसरा दी गई एक विधा का इतिहास हिन्दी में पढ़ सकेंगे.
आमीन!

१९६६ में अपनी मृत्यु से पहले अपने आख़िरी दिनों में गुलाब बाई इस बात से बेहद आहत थीं कि फ़िल्मों के चलन ने लोगों के भीतर से नौटंकी के प्रति सारा अनुराग ख़त्म कर दिया था.

इन्हीं गुलाब बाई की आवाज़ में सुनिये राग भीमपलासी का एक टुकड़ा.



(किताब की डिटेल्स: 'Gulab Bai - The Queen Of Nautanki Theatre', लेखिका: दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा, Penguin India, 2006)

Wednesday, April 22, 2009

सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे: इक़बाल बानो

इक़बाल बानो की मृत्यु पर कल मैंने एक पोस्ट लगाई थी. 

असल में कबाड़ख़ाने पर उन पर पहले से प्रकाशित एक पोस्ट को दुबारा लगाया था. आज शाम को हमारे आदरणीय श्री असद ज़ैदी ने फ़ोन पर इस बाबत मेरी एक ग़लती को रेखांकित करते हुए स्व. इक़बाल बानो के बारे में कुछेक बातें बतलाईं और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की उस नज़्म का ज़िक्र भी किया जिसे सुनाते हुए वे अपने सुनने वालों को रुला दिया करती थीं. 

 इक़बाल बानो पर एक विस्तृत पोस्ट लिखनी ही थी सो आज ही सही. बड़े भाई असद ज़ैदी की नज़्र. 

 इक़बाल बानो का ताल्लुक रोहतक से था. बचपन से ही उनके भीतर संगीत की प्रतिभा थी जिसे उनके पिता के एक हिन्दू मित्र ने पहचाना और उनकी संगीत शिक्षा का रास्ता आसान बनाया. इन साहब ने इक़बाल बानो के पिता से कहा: "बेटियां तो मेरी भी अच्छा गा लेती हैं पर इक़बाल को गायन का आशीर्वाद मिला हुआ है. संगीत की तालीम दी जाए तो वह बहुत नाम कमाएगी." 

 मित्र के इसरार पर उनकी संगीत शिक्षा का क्रम दिल्ली में शुरू कराया गया - दिल्ली घराने के उस्ताद चांद ख़ान की शागिर्दी में. इक़बाल बानो ने दादरा और ठुमरी सीखना शुरू किया. उस्ताद की सिफ़ारिश पर ही बाद में उन्हें ऑल इन्डिया रेडियो के लिए गाने के मौके मिले. वे १९५० के आसपास पाकिस्तान चली गईं जहां १९५२ में मुल्तान के इलाके के एक ज़मींदार ने इस वायदे पर सत्रह साल की इक़बाल बानो से निकाह रचा लिया कि उनकी संगीत यात्रा पर कोई रोक नहीं आने दी जाएगी. 

यह वायदा उनके पति ने १९८० तक अपने इन्तकाल तक बाकायदा निभाया. पति की मृत्यु के बाद वे लाहौर आ गईं. ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल के लिए उनकी आवाज़ बेहद उपयुक्त थी और उन्होंने अपने जीवन काल में एक से एक बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं. 

 मरहूम इन्कलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की नज़्म "हम देखेंगे" की रेन्डरिंग को उनके गायन कैरियर का सबसे अहम मरहला माना जाता है. ज़िया उल हक़ के शासन के चरम के समय लाहौर के फ़ैज़ फ़ेस्टीवल में उन्होंने हजारों की भीड़ के आगे इसे गाया था. इस प्रस्तुति ने ख़ासी हलचल पैदा की थी और सैनिक शासन ने इस वजह से उन्हें काफ़ी परेशान भी किया. लेकिन उनके इस कारनामे ने उन्हें पाकिस्तान में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया था. 

 २००३ के बाद से उनकी तबीयत नासाज़ चल रही थी और उन्होंने महफ़िलों में गाना तकरीबन बन्द कर दिया. २१ अप्रैल २००९ को उनका देहान्त हो गया. फ़ैज़ साहब की इस नज़्म के इक़बाल बानो द्वारा गाये जाने के पीछे यह विख्यात है कि ख़ुद फ़ैज़ साहब इसे उनकी आवाज़ में सुनकर रो दिये थे. 

 ख़ास तौर पर आदरणीय असद ज़ैदी जी की फ़रमाइश पर प्रस्तुत है यह अलौकिक, एक्सक्लूसिव रचना:
   

 हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लौह-ए-अजल में लिखा है जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएँगे हम महकूमों के पाँव तले जब धरती धड़ धड़ धड़केगी और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी हम देखेंगे जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएंगे सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ायब भी है हाज़िर भी जो नाज़िर भी है मन्ज़र भी उट्ठेगा अनल - हक़ का नारा जो मैं भी हूं और तुम भी हो और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो (यहां से डाउनलोड करें: http://www.divshare.com/download/7170033-48d)

पारसी थियेटर का बादशाह : मास्टर फ़िदा हुसैन 'नरसी'



कोई पन्द्रह साल पहले नैनीताल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सौजन्य से एक ज़बरदस्त थियेटर वर्कशॉप आयोजित की गई थी जिसमें बी. वी. कारन्त के अलावा मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी ने बतौर प्रशिक्षक शिरकत की थी. मास्टर फ़िदा हुसैन तब सौ साल के हुआ चाहते थे. लम्बे कद के मास्टर साहब की फ़िटनेस और कड़कती आवाज़ नौजवानों में ईर्ष्या का विषय बना करते थे. उन के खाने और सोने-जागने के घन्टे तय होते थे. छोटी मोटी ऊंचाई चढ़ते हुए उनकी सांस ज़रा भी नहीं फूलती थी और रिहर्सल के वक़्त उनकी उपस्थिति में किस की मजाल कि थोड़ी सी भी अनुशासनहीनता दिखाए.

मास्टर साहब नैनीताल के रंगकर्मी युवाओं से 'ख़ूबसूरत बला' नाम का नाटक तैयार करा रहे थे. बी. वी. कारन्त साहब नाटक का संगीत तैयार कर रहे थे (इस अद्भुत प्रस्तुति के अद्भुत संगीत को नैनीताल के रंगकर्मी अब भी बड़ी मोहब्बत से याद करते हैं). फ़िलहाल रिहर्सल्स के बाद उनके साथ मेरी तीन-चार लम्बी मुलाकातें हुईं थीं जिनमें उन्होंने बड़े उत्साह के साथ नौटंकी से जुड़े अपने अनुभव सुनाए थे.

११ मार्च १८९४ को मुरादाबाद में जन्मे मास्टर फ़िदा हुसैन को पारसी थियेटर का बादशाह माना जाता था. पारसी थियेटर का जन्म बहुत दिलचस्प तरीके से हुआ था. अंग्रेज़ों के समय में गोरों के मनोरंजन के लिए विलायती ड्रामा कम्पनियां आया करती थीं. भारत में ये कम्पनियां अच्छा खासा मुनाफ़ा बटोरा करती थीं सो पारसी समुदाय के कुछ लोगों के मन में विचार आया कि इन्हीं विलायती कम्पनियों की तरह यहां भी थियेटर कम्पनियां बना कर अच्छा पैसा कमाया जा सकता है. इस सिलसिले में एलिज़ाबेथन नाटकों की तर्ज़ पर अतिशय ड्रामाई तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटकों का मंचन शुरू हो गया. यह दीगर है कि पारसी मालिकान को भारतीय जनमानस या संस्कृति से बहुत लेनादेना न था. पारसी थियेटर में ठेठ भारतीय थीम्स का प्रवेश धीरे धीरे लेकिन एक निश्चितता के साथ हुआ.

१९११ में एक कठपुतली शो देखने के बाद मास्टर फ़िदा को लग गया था कि उनकी ज़िन्दगी इसी क्षेत्र में काम करने को बनी है. १९१७ में मुरादाबाद के रामदयाल ड्रेमेटिक क्लब के नाटक 'शाही फ़कीर' में उन्हें उनके गोरे रंग और मधुर आवाज़ के दम पर लीड स्त्री किरदार निभाने को कहा गया. यहां एक बात का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है कि उनके परिवार में कला-संगीत वगैरह जैसे पेशों के लिए कोई विशेष आदर का भाव नहीं था. सारे परिवार के विरोध के बावजूद वे इस मैदान में कूद पाए तो इस के पीछे उनके पिता का प्रोत्साहन था. १९१८ में उन्होंने रॉयल अल्फ़्रेड कम्पनी की नौकरी कर ली जहां पण्डित राधेश्याम कथावाचक के साथ अगले बारह सालों तक उनकी ज़बरदस्त जुगलबन्दी बैठी और कम्पनी ने एक से एक सफल नाटक किए. 'नरसी मेहता' में लीड किरदार निभाने वाले फ़िदा हुसैन के अभिनय का ऐसा सिक्का चला कि उनके नाम के आगे नरसी उपनाम जुड़ गया.

१९३२ में मास्टर साहब ने फ़िल्मों में भी काम करना शुरू कर दिया - 'रामायण', 'मस्ताना', 'डाकू का लड़का' जैसी फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय किया और गाने भी गाए. मस्ताना का एक गीत बहुत विख्यात हुआ:

 जिधर उनकी तिरछी नज़र हो गई
क़यामत ही बर्पा उधर हो गई

वो फिर-फिर के देखें मुझे जाते-जाते
मुहब्बत मेरी पुर-असर हो गई

किया राज़ अफ़शाँ निगाहों ने दिल का
छुपाते-छुपाते ख़बर हो गई

किया क़त्ल चुटकी में 'आज़ाद' को भी
निगाह उनकी कैसी निडर हो गई

शब-ए-वस्ल भी दिल के अरमाँ न निकले
मनाते-मनाते सहर हो गई



उनके प्रशंसकों की फ़ेहरिस्त ख़ासी लम्बी हुआ करती थी जिसमें कुन्दनलाल सहगल, सोहराब मोदी, जिगर मुरादाबादी से लेकर महात्मा गांधी, पं मदन मोहन मालवीय से लेकर राममनोहर लोहिया और इन्दिरा गांधी जैसी हस्तियां शुमार हैं.

फ़िल्मों से वापस आकर उन्होंने दोबारा रंगमंच का रुख़ किया और १९४८ में अपनी कम्पनी 'मूनलाइट' स्थापित की. बीस साल यानी १९६८ तक काम करने के बाद उन्होंने अभिनय से सन्यास ले लिया. छब्बीस साल बाद वे नैनीताल में थे और बच्चों को रंगमंच के गुर सिखला रहे थे.

१०५ वर्ष की आयु में यानी १९९९ में उनका देहान्त हुआ. मास्टर साहब से हुई बहुत ज़्यादा बातें जस की तस तो याद नहीं हैं पर उन्होंने उन पांच प्रतिज्ञाओं का ज़िक्र हर मुलाकात में किया जो उन से उन के पिता ने थियेटर में जाने की अनुमति देते हुए लिए थे:

१. चरित्र मजबूत रखना
२. झूठ न बोलना
३. जुआ न खेलना
४. नशा न करना
५. दूसरे की अमानत पर निगाह न धरना.

मास्टर साहब ने इन वचनों को ताज़िन्दगी निभाया और एक अद्वितीय जीवन जिया. ऐसे व्यक्तित्व की आज के ज़माने में कल्पना तक नहीं की जा सकती.

मास्टर फ़िदा हुसैन की स्मृतियों को नमन!

(फ़ोटो: दूसरी फ़ोटो में मास्टर फ़िदा हुसैन फ़िल्म 'मस्ताना' के नायक के रूप में. दोनों फ़ोटो 'संदर्श' पुस्तिका २ से साभार)


इक़बाल बानो नहीं रहीं

इक़बाल बानो का इन्तकाल हो गया.

संगीत जगत के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है.

उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैं इसी ब्लॉग से कभी उन पर लगाई गई एक पोस्ट को दोबारा लगा रहा हूं.



इक़बाल बानो का नाम ग़ज़ल प्रेमियों में विशिष्ट स्थान रखता है. भारतीय मूल की इस बेहतरीन पाकिस्तानी गायिका ने बहुत सारी ग़ज़लों को स्वरबद्ध किया है. मिर्ज़ा ग़ालिब की संभवतः सबसे लम्बी ग़ज़ल है "मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए". मुझे याद पड़ता है किसी किताब या पत्रिका में मैंने फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' साहब का एक लम्बा लेख देखा था इस ग़ज़ल के बारे में. हमारे गुलज़ार साहब का बनाया, भूपिन्दर का गाया गीत "दिल ढूंढता है" इसी ग़ज़ल के एक शेर से 'प्रेरित' है.


इक़बाल बानो ने इस कालजयी ग़ज़ल के चन्द शेर गाये हैं. लुत्फ़ उठाइए.





मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए
जोश-ए-कदः से बज़्म चराग़ां किये हुए

करता हूं जमा फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़गां किये हुए

फिर पुरसिस-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार नमकदां किये हुए

मांगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियह रुख़ पे परीशां किये हुए

चाहे है फिर किसी को मुकाबिल में आरज़ू
सुरमे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गां किये हुए

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए

ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ां किये हुए

Tuesday, April 21, 2009

हिंदी बोलेंगे ओबामा, गर ठान लें...

अजब हंगामा बरपा है। समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने की बात क्या कही गई, तूफान मच गया। उन अंगरेजी अखबारों को तो छोड़िए, जिन्होंने 1857 के संग्राम को खुलेआम विरोध किया था या भारत की आजादी की खबर इस अंदाज में छापी थी जैसे कोई अनहोनी हो गई, हिंदी मीडिया का भी एक तबका छाती पीट रहा है। जैसे अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करना गैरकानूनी बात हो, या पहली बार कही जा रही हो। बाकी हिंदी समाज में भी इस हमले को लेकर एक खास तरह की उदासीनता है। दिमागी गुलामी का इससे बेहतर उदाहरण मिलना मुश्किल है।

इसमें शक नहीं कि मुलायम सिंह यादव हिंदी के लिए उतने ही प्रतिबद्ध हैं जितने कि समाजवाद के लिए। तीन बार देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद दोनों ही मसलों पर उनकी ओर से कोई ऐसी रचनात्मक और सकारात्मक पहलकदमी नहीं हुई जिससे कोई गुणात्मक फर्क पड़ता। लेकिन हिंदी का मसला उनका भी है जो मुलायम की राजनीति से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। क्योंकि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करके मातृभाषा को स्थापित करने की लड़ाई भावना का नहीं, जनतंत्र का प्रश्न है।

अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाना दरअसल संविधान का संकल्प है। आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी को अखिल भारतीय संपर्क और राजकाज की भाषा बनाने का सपना इसलिए देखा गया था क्योंकि गुलामी सिर्फ भौगोलिक और शारीरिक नहीं होती, सांस्कृतिक भी होती है। और आजाद भारत में हिंदी इसी सांस्कृतिक आजादी की अभिव्यक्ति के लिए चुनी गई थी। ध्यान देने वाली बात ये है कि ये हिंदी पहले से मौजूद नहीं थी। बल्कि लगातार बनाई जा रही थी। हिंदी क्षेत्र में भी मातृभाषा तो अवधी, भोजपुरी, मगही, बघेली, बुंदेली जैसी बोलियां थीं जिन्हें पीछे छोड़ हिंदी की प्रतिष्ठा की जानी थी। ये स्वाभिमान का प्रश्न था। इसीलिए आजादी के बाद महात्मा गांधी ने बीबीसी के संवाददाताओं से अंग्रेजी में बात करने से इंकार करते हुए कहा था-दुनिया से कह दो, गांधी को अंग्रेजी नहीं आती। बाद में अरसे तक डा.लोहिया हिंदी को लेकर जूझते रहे और अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करना समाजवादी आंदोलन की प्रमुख मांग बनी रही

जाहिर है, आज जो अंग्रेजी की ओर उंगली उठने पर बौखला रहे हैं वे मन ही मन गांधी जी और डा.लोहिया को भी मूर्ख मानते होंगे। ये तबका बेहद शातिर है। उसने बड़ी चालाकी से अंग्रेजों की अनिवार्यता हटाने के वाक्य से "अनिवार्यता" शब्द को गायब कर दिया। और बताने लगे कि अंग्रेजी हटाने की बात करना 21वीं सदी में मूर्खता है। इससे देश पीछे चला जाएगा या फिर मुलायम के अपने बच्चे क्यों अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े,वगैरह-वगैरह। वैसे तो, महात्मा गांधी और डा.लोहिया ने भी विदेश जाकर अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाई की थी। क्या इस तर्क पर हिंदी के बारे में उनके विचार गलत ठहराए जा सकते हैं।

दरअसल, ये सारे तर्क मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए हैं। बात सिर्फ इतनी है कि करीब 50 करोड़ हिंदी भाषी, अंग्रेजी न जानने के बावजूद कैसे तरक्की कर सकें। कैसे डाक्टर, इंजीनियर, मैनेजर बन सकें। जिन्हें अंग्रेजी पढ़ना हो पढ़ें, पर जिन्हें अंग्रेजी न आती हो, उन्हें खामियाजा न भुगतना पड़े। आखिर रूस, चीन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, स्पेन जैसे देश बिना अंग्रेजी के तरक्की कर सकते हैं, तो हिंदी वाले क्यों नहीं। ये हक हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं को मिलना चाहिए।

वैसे भी, सिर्फ अंग्रेजी जानना ही विकास की गारंटी होती तो अमेरिका में लाखों लोग खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारने को मजबूर नहीं होते। इक्कीसवीं सदी का एक चेहरा ये भी है कि अंग्रेजी जिस आर्थिक व्यवस्था के केंद्र में थी, वो दिवालिया हो गई है और जिस आउटसोर्सिंग का फायदा उठाने के लिए अंग्रेजी जानना जरूरी माना जाता था, उसे बंद करने के लिए अमेरिका में जुलूस निकल रहे हैं। यानी, मनमनोहन सिंह का अंग्रेजी सिखाने के लिए आक्सफोर्ड जाकर अंग्रेजों को शुक्रिया कहना बेकार जा सकता है। वैसे भी, अंग्रेजी का सारा तूमार गलत तथ्यों के आधार पर बांधा गया है। अंग्रेजी पूरी दुनिया की नहीं, सिर्फ इंग्लैंड, अमेरिका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया और आधे कनाडा की भाषा है। यानी साढ़े चार देश। बाकी इन देशों के पूर्व उपनिवेशों के एक-आध फीसदी लोग इस भाषा का व्यवहार करते हैं।

दिमागी गुलामी को स्वर्ग का सुख मान रहे वर्ग की चिंता ये है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता हटते ही करोड़ों-करोड़ आम लोग तेजी से कुलीनतंत्र के शामियाने में घुसने की कोशिश करेंगे। तब आम और खास का फर्क ही मिट जाएगा। शासक वर्ग भी इस फर्क को बनाए रखना चाहता है। उसकी चिंता देश के दो-चार करोड़ अंग्रेजी जानने वालों को लेकर ही रहती है। ये वर्ग मुखर है और सत्ता प्रतिष्ठान के हर कोने में कब्जा जमाए हुए है।

देखा जाए तो, आग और पहिये के बाद भाषा मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार है। और दुनिया भर के शिक्षाशास्त्री बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा से ही मेधा निखरती है। मौलिक अभिव्यक्तियां मातृभाषा में ही संभव होती हैं। जनतंत्र का तकाजा ये है कि जनता और शासन की भाषा एक हो, पर हिंदी समाज में मुंसिफ और मुल्जिम, मुवक्किल और वकील, डाक्टर और मरीज, अफसर और क्लर्क की भाषा अलग है। अंग्रेजी में निष्णात होने के प्रयास में हिंदी वाला पैर में पत्थर बांधकर दौड़ता है और अक्सर पिछड़ जाता है। ऐसे में जरूरत नए महाप्रयास की है। ये सही है कि ज्ञान-विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में हिंदी किताबे उपलब्ध नहीं हैं। पर ये कोई मुश्किल काम नहीं है। अगर ठान लिया जाए तो पांच साल में दुनिया का सारा ज्ञान हिंदी में उपलब्ध हो सकता है। वैसे भी, आईआईटी,कानपुर के वैज्ञानिक ऐसा साफ्टवेयर विकसित करने के करीब पहुच गए हैं जो बटन दबाते ही सटीक अनुवाद पेश करेगा। यानी तकनीक भी काम आसान कर रही है। जरूरत है, इरादे की। याद करिए, तुर्की के कमाल पाशा को। उसने विद्वानों से पूछा कि तुर्की लागू करने के लिए कितना वक्त चाहिए। जवाब मिला-दस साल। कमाल पाशा ने कहा-समझ लो दस साल इसी वक्त खत्म हो गए, और तुर्की भाषा लागू हो गई।

कवि त्रिलोचन शास्त्री कहते थे कि हिंदी वालों में अपनी भाषा को लेकर अनुराग नहीं है। बात सही है। अनुराग होता तो समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में अंग्रेजी की बात पर न कांग्रेस आलोचना करने की हिम्मत करती, न बीजेपी। लेकिन उन्हें पता है कि हिंदी के नाम पर वोट नहीं पड़ते। जाति और धर्म के नाम पर पड़ते हैं। सोचिए, हिंदी का मजाक उड़ाने वाले मराठी की बात आते ही कैसे मिमियाने लगते हैं। बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रातो-रात अपने बोर्ड मराठी में कर लेती हैं और मैकडॉनल्ड की दुकानों में बटाटा बड़ा बिकने लगता है। क्योंकि उन्हें राज ठाकरे जैसों के लट्ठ का डर है। पर हिंदी को न राज ठाकरे चाहिए न जूता चलाने वाले जरनैल। उसे तो जामवंतों की जरूरत है जो हिंदी वालों को उनकी ताकत का अहसास करा सके। 50 करोड़ जाग्रत हिंदी भाषियों के बाजार में घुसने के लिए तो ओबामा भी हिंदी सीख लेंगे।

Monday, April 20, 2009

आइये आपको कू सेंग से मिलवाता हूँ !

(मैंने पिछले कुछ दिनों से अनुनाद में कू सेंग की कविताओं का एक सिलसिला शुरू किया है- आज उसे अपने इस प्यारे कबाड़खाने पर भी ला रहा हूँ।)

कवि का परिचय

कू-सेंग का जन्म सीओल में 1919 में हुआ और वहीं 11 मई 2004 में उनका देहान्त हुआ। उनके शैशवकाल में ही उनका परिवार देश के उत्तरपूर्वी शहर वॉनसेन में आकर बस गया, जहाँ वे बड़े हुए। उनका परिवार परम्परा से कैथोलिक आस्थाओं को मानने वाला था और उनका एक बड़ा भाई कैथोलिक पादरी भी बना। कू-सेंग ने जापान में उच्चशिक्षा पायी, जहाँ `धर्म के दर्शनशास्त्र´ की पढाई करते हुए उनकी आस्था कुछ समय के लिए डगमगाई भी लेकिन बाद में वे धीरे-धीरे अपनी पारिवारिक आस्थाओं की ओर लौट आए। कू-सेंग ने पढ़ाई के बाद कोरिया के उत्तरी हिस्से में अपनी वापसी के साथ ही पत्रकारिता और लेखन का पेशा अपना लिया। 1945 में आज़ादी के बाद अपनी कविताओं की पहली पुस्तक छपवाने के प्रयास में जब उनसे साम्यवादी मानदंडों के अधीन लिखने को कहा गया तो वे असहमति प्रकट करते हुए दक्षिण कोरिया चले गए। कू-सेंग ने कई वर्ष पत्रकारिता की और वे एक प्रतिष्ठित कोरियाई समाचार-पत्र के सम्पादक-मंडल भी रहे। जापान में अपने छात्र-जीवन के दौरान ही उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी। इसके बाद वे कोरियाई साहित्य के शिखर तक पहुंचे। इंटरनेट पर प्राप्त ब्यौरों के अनुसार दुनिया के कुछ चुनिन्दा कवि ही अपनी भाषा और समाज में इतनी लोकप्रियता अर्जित कर सके हैं, जितनी कू-सेंग ने अपने जीवन-काल में की। उनकी कविता पर कई साहित्यिक और दार्शनिक शोध भी हुए। इन सभी शोधकार्यों और अपार लोकप्रियता के बावजूद कोरियाई साहित्य-संसार इस बात को स्वीकारता है कि एक महान मानवतावादी कवि के रूप में कू-सेंग का सम्यक मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है।
Wasteland of Fire, Christopher's River, Infant Splendor, Rivers and Field आदि उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं, जिनका अनुवाद अंग्रेज़ी, जर्मन, इतालवी और जापानी भाषाओं में हो चुका है।
-शिरीष कुमार मौर्य


मेरे दिल की आग

मेरे पास एक याद है
तब की
जब मैं पाँच या छह बरस का था

तीस के आसपास की एक जवान विधवा थी
जो मेरे ठीक पड़ोस वाले घर में किराए पर एक कमरा लेकर रहती थी
मेरे ख़याल से
कुछ दूर स्थित एक मठ के कपड़े धोने से
उसकी गुज़र-बसर होती थी
वह मठ को समर्पित एक धार्मिक स्त्री थी

काफी देर में पैदा होने
और बूढ़े अभिभावकों की छाया तले पलने-बढ़ने के कारण ही शायद
मैं उस जवान स्त्री से एक जुड़ाव महसूस करता था
और वह भी मुझे अच्छा मानती थी

मैं न सिर्फ उसके घर आया-जाया करता था
बल्कि कभी-कभार वहीं सो जाता था
मेरे अभिभावकों को भी इस पर कोई एतराज़ नहीं था

उस साल की शरद ऋतु में
वह आज जैसी ही दमकती चाँदनी थी और मैं खेलते-खेलते सो गया था
जबकि मेरी बगल में वह कपड़े धो-निचोड़ रही थी
मुझे पता ही नहीं चला
कि मेरे खेलने और उसके लगातार काम करते रहने के बीच
मुझे कब नींद आ गई!

आधी रात मेरी आँख खुली
और मैंने उसे वैसे ही कपड़ों की छप-छप के बीच पाया
मैंने अधखुली आंखों और नींद भरी आवाज़ में पूछा उससे -
`` क्या आप कभी सोयेंगी नहीं ? ´´
और पलट कर फिर सोते हुए
अपने पीछे से आती आवाज़ को कहते सुना -
`` क्यों नहीं?
लेकिन जब मेरे दिल की आग बुझ जाएगी तब! ´´

निश्चित रूप से
उस उम्र में मुझे कोई अन्दाज़ा नहीं था
कि उसके दिल में कैसी आग हो सकती थी
या कैसे बुझाया जा सकता था उसे
लेकिन इन शब्दों ने मेरे मन के एक कोने में
डेरा डाल लिया
और अब ये प्रकट हो रहे हैं जस के तस
जबकि कई बरस बाद मैं भी लेटा हूँ
सो पाने में असमर्थ
इस भरपूर चाँदनी भरी रात में।


सार्वजनिक विष्ठा विसर्जन का मैदान नहीं है हमारा यह कबाड़ख़ाना

पिछली एक पोस्ट पर आई अशालीन टिप्पणियों ने भीतर तक आहत किया है. बात-विषय-मुद्दा कुछ होता है, भाई (किंवा बहन) लोग कुछ और चालू कर देते हैं. आपकी बातें जायज़ हों तो भी ज़बान की तहज़ीब एक बात होती है. आप को किसी से पर्सनल खुन्दक है तो उस से निबटिये और जितना गालीज्ञान आपने अर्जित किया हो उसे उसी के सामने प्रदर्शित कीजिये. सार्वजनिक विष्ठा-विसर्जन का मैदान नहीं है हमारा यह कबाड़ख़ाना.

मैं इस ब्लॉग पर न चाहते हुए भी आज से कमेन्ट मॉडरेशन शुरू कर रहा हूं. मैं नहीं चाहता इतने लम्बे समय की मेहनत कुछ कुंठित कमेन्ट्स के कारण भुस हो जाए, क्योंकि न तो मेरी खाल गैंडे की है न ही मुझे कभी कभी आने वाले दुर्लभ गुस्से पर काबू रहता है. आशा है कबाड़ख़ाने के पाठक मेरी बात समझेंगे.

Friday, April 17, 2009

तो दुनिया नीरो से कहती



बेर्नार्दास ब्राज़्दियोनिस (११ जनवरी १९०७-११ जुलाई २००२) को समकालीन लिथुवानियाई कवियों में काफ़ी ऊपर गिना जाता है. बहुत बचपन में अपने मां-बाप के साथ अमेरिका चले गए ब्राज़्दियोनिस अपनी पढ़ाई के लिए वापस अपने वतन लौटे लेकिन बाद में दूसरे विश्वयुद्ध के समय उन्हें मजबूर किया गया कि वे दोबारा देश छोड़ें. १९४९ में वे पुनः अमरीका चले गए और वहीं बस गए. उनकी कविताओं की दस किताबें छपीं. जब वे १९८८ में लिथुवानिया आए तो उनकी कविताओं को उनके मुंह से सुनने के लिए हज़ारों की संख्या में श्रोतागण स्टेडियमों में इकठ्ठा हुआ करते थे. १९८९ में उनकी कविताओं के एक संग्रह 'कविता का पूरा चांद' की एक लाख प्रतियां छपते ही बिक गई थीं. रहस्यवाद, निर्वासन और बेचैनी उनकी कविता के आधार तैयार करते हैं.

1.
दुनिया का देवता


(संयुक्त राष्ट्र संघ के ध्यान-चर्च में एक पेड़ से प्रार्थना)

अगर तुम पानी होते
स्फटिक जितने साफ़, प्रवाहमान -
तो दुनिया नीरो से कहती:
अपने हाथ धोओ, खलनायक
जिनमें धब्बे हैं लाखों काट डाले गयों के!

अगर तुम पत्थर होते
असंख्य हाथों द्वारा ले जाए गए हज़ारों मील दूर तक-
तुम्हें बांध दिया जाता चंगेज़ ख़ान की गर्दन के गिर्द
और वह डूब जाता,
प्रशान्त महासागर में, बिकिनी आइलैण्ड के नज़दीक
हाइड्रोजन बम के नीचे
उस बूढ़े कुत्ते की तरह जिसने चबा डाले हों
बाकी कुत्तों के झुण्ड.

अगर तुम ...
अगर तुम होते ईश्वर, महान और क्रूर,
अगर तुम बुद्ध होते, पालथी मारे बैठे अपनी ही शान्ति को आशीष देते, बुद्ध!
अगर तुम होते धन, मुल्कों पर राज करते हुए
अगर तुम ईसा होते, आस्था की सरसों का बीज लिए ...

अगर तुम एक जीवित वृक्ष होते! ... बढ़ते और सरसराते हुए ...
अगर तुम होते लिथुआनिया के खेतों के एक बांज -
तुम्हारे चारों तरफ़ खिला होता दुनियावी जन्नत का एक चरागाह
जिस पर आज़ाद खेल रहे होते हज़ारों बच्चे ...

अरे भाई, बूढ़े ठूंठ,
क्या तुम वाक़ई हो समूची मानवता के ईश्वर?

2.
कला का प्रहसन


मेरी खिड़की की बग़ल में एक दफ़ा
एक आदमी ने सड़क पर कुछ कहा.
उसके शब्द थे असल में
कला का प्रहसन.

भारी है जीवन, सौ टन वज़नी.
नाविक के ठहाके जैसा भारी - हा! हा! हा!
भारी और विराट जैसे सिक्स्थ स्टेशन से
सेन्ट वेरोनिका का स्कार्फ़

कुछ मरते हैं शालीनता से
कुछ कुत्तों जैसी आवाज़ें निकालने लगते हैं समय से पहले
ख़रीदे गए कफ़न वग़ैरह या ईश्वर के बग़ैर ...
दफ़ा होइए अब आप सारे.

3.
हमारी प्रार्थनाएं


हमारे सारे विचार और सारी उम्मीदें अब भी मंडराएंगी
हमारे घरों के गिर्द, उस देश के गिर्द जहां हम जन्मे.
सुन्न पड़े हुए ठण्ड से, हम जाते हैं वहां ऊष्मा के लिए
धरती के सुदूरतम कोनों से चल कर.

हम दोहराते हैं अपनी रोज़ाना की प्रार्थना:
"हमें दो प्रभु, मातृभूमि के आकाश का एक टुकड़ा ..."
हमारी तमाम भटकनों के बाद भी वह हैं वहीं.
ताकि जीवन से भर जाएं हमारी थकी आत्माए.

4.
रात के भीतर यात्रा


मेरी बहन ने मुझे बताया, "तुम मेरे भाई नहीं हो."
मेरे भाई ने मुझे बताया, "तुम मेरे भाई नहीं हो."
मुझे कहां मिलेगी एक बहन - कहां, एक भाई,
मैं जो, अजनबी हूं, भाई और बहन के लिए?

ऊपर आल्प्स की चोटियों पर, बर्फ़ की गहराइयों में दबा
सेन्ट बर्नार्ड गिरजाघर मोड़ता है वर्षों के कारण सफ़ेद पड़ चुकी अपनी पीठ,
एक ठण्ड खाया अकेला भक्त सिर हिलाता है घंटी की बग़ल में
और उसकी नींद पर झुकते सपने और फ़रिश्ते उसे जगा देते हैं.

अब वह चल रहा है, मुझे टोहता - पहाड़ी उतरता: रात भर
दिन भर, हवाओं और बर्फ़ीले अंधड़ों में पानी होता, जमता.
ऐसा लगता है उसका हाथ सहलाता है मेरी भौंहें - उसका भला हाथ मेरे ऊपर
ऐसा लगता है वह मेरा चेहरा छूता है - वह नया जीवन देता है मेरे दिल को

यहां नीचे, सो जाएगा मेरा दिल. जाग जाएगा ऊपर. छिपा हुआ है इसका सूरज
ठहर रही है धड़कन इसकी, यह दिल पहुंच चुका मौत की दहलीज पर.
कोहरे के बीच - एक कथा: सारा कुछ एक सफ़र है कोहरे के बीच. और ख़ुद जीवन उड़ रहा है अब कोहरे के बीच - एक यात्रा रात के भीतर.

5.
दौड़ें


एक सिपाही मार्च करता है म्यूनिख से स्तालिनग्राद
पहली प्लाटून की पहली कम्पनी की पहली डिवीज़न के साथ.
और मिन्स्क नगर की संकरी गलियों में ही टाइगर टैंक पर सवार उसकी मृत्यु ने
डाल दी थी अपनी छाया उस पर.
उसने कहा:"हिटलर की जय हो! गुडनाइट बहादुर सिपाही ..."

एक व्यापारी हड़बड़ी में भागता है लन्दन से कलकत्ता
बढ़िया सौदा हाथ लगा है: दस हज़ार पाउन्ड का खरा मुनाफ़ा.
और एक मरियल-पीले ऊंट पर सवार उसकी मृत्यु शाम से ही इन्तज़ार करती है
अपने ठण्डे हाथों के बीच भींचे एक ख़ंजर मार्सा मात्रुक में

प्लन्ज का रहनेवाला एक ग्रामीण समुन्दर पार कर पहुंचता है मेएन के खेतों तलक
ताकि और दूर भाग सके अपनी मृत्यु से -
लेकिन उसकी मृत्यु उसे मिलती है आलू का खेत जोतते एक ट्रैक्टर में
"जिंगल बैल्स" गुनगुनाती और पुकारती हुई उसे - "हैलो, अच्छे लड़के!
कैसे हो?"

(मिन्स्क: एक रूसी नगर, मार्सा मात्रुक: मिश्र का एक नगर, प्लन्ज: इंग्लैण्ड का एक गांव, मेएन: न्यू इंग्लैण्ड, अमेरिका का एक राज्य)

Thursday, April 16, 2009

वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा दिया

कवि-पत्रकार और हमारे शीर्ष कबाड़ी वीरेन डंगवाल ने हाल में ही 'अमर उजाला', बरेली की सम्पादकी से इस्तीफ़ा दे दिया. ऐसा जिन कारणों के चलते करना पड़ा वे न केवल बेहद शर्मनाक हैं, देसी-वर्नाकुलर अख़बारों के मालिकों के स्वार्थों की पोल भी खोलते हैं, जिनके अख़बार जनता को राजनैतिक रूप से लगातार सुन्न बनाते जाने के अपने एकसूत्रीय कार्यक्रम की आड़ में पैसा खोदने के महती उपक्रम में लगे रहने को अब और भी और भी उत्साह से अंजाम देने में संलग्न हो जाएंगे. उनकी राह में जो एक रोड़ा उनकी अन्यथा नकली विनम्रता से उनकी सेनिटी को बचाए हुए था, अब ख़ुद ही हट चुका है. नए नौजवान और प्रतिबद्ध पत्रकारों की एक अनूठी फ़ौज वीरेन डंगवाल के प्रोत्साहन से खड़ी हुई है. इस बात को रेखांकित करते हुए कबाड़ख़ाना उन्हें बड़ी मोहब्बत और इज़्ज़त के साथ ऐसा करने की शाबासी देता है और कहता है कि बहुत बढ़िया किया वीरेन दा! आपने हम सब के विश्वास को मजबूत किया है!

यशवन्त सिंह का निम्नलिखित आलेख कबाड़ख़ाना के पाठकों के लिए भड़ास फ़ॉर मीडिया से साभार:




कवि और वरिष्ठ पत्रकार वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा दे दिया है। पिछले 27 वर्षों से अमर उजाला के ग्रुप सलाहकार, संपादक और अभिभावक के तौर पर जुड़े रहे वीरेन डंगवाल का इससे अलग हो जाना न सिर्फ अमर उजाला बल्कि हिंदी पत्रकारिता के लिए भी बड़ा झटका है। मनुष्यता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र में अटूट आस्था रखने वाले वीरेन डंगवाल ने इन आदर्शों-सरोकारों को पत्रकारिता और अखबारी जीवन से कभी अलग नहीं माना। वे उन दुर्लभ संपादकों में से हैं जो सिद्धांत और व्यवहार को अलग-अलग नहीं जीते। वीरेन ने इस्तीफा भी इन्हीं प्रतिबद्धताओं के चलते दिया।

पता चला है कि वरुण गांधी द्वारा पीलीभीत में दिए गए विषैले भाषण के प्रकरण पर अमर उजाला, बरेली में कई विशेष पेज प्रकाशित किए गए। पत्रकारिता में सनसनी और सांप्रदायिकता के धुर विरोधी वीरेन डंगवाल को इन पेजों के प्रकाशन की जानकारी नहीं दी गई। वरुण को हीरो बनाए जाने के इस रवैए से खफा वीरेन ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफे के 20 दिन बाद अमर उजाला, बरेली की प्रिंट लाइन से वीरेन डंगवाल का नाम गायब हो गया। उनकी जगह स्थानीय संपादक के रूप में गोविंद सिंह का नाम जाने लगा है। वीरेन डंगवाल इससे पहले भी इसी तरह के मुद्दे पर इस्तीफा दे चुके हैं। वह दौर अयोध्या के मंदिर-मस्जिद झगड़े का था। तब उस अंधी आंधी में देश के ज्यादातर अखबार बहे जा रहे थे। वीरेन डंगवाल की अगुवाई में अमर उजाला ही वह अखबार था जिसने निष्पक्ष और संयमित तरीके से पूरे मामले को रिपोर्ट किया, इसके पीछे छिपी सियासी साजिशों का खुलासा करते हुए जन मानस को शिक्षित-प्रशिक्षित किया। उन्हीं दिनों एटा में हुए दंगें की रिपोर्टिंग अमर उजाला में भी कुछ उसी अंदाज में प्रकाशित हो गई, जैसे दूसरे अखबार करते रहे हैं। इससे नाराज वीरेन डंगवाल ने इस्तीफा दे दिया था।

5 अगस्त सन 1947 को कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में जन्मे वीरेन डंगवाल साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि हैं। उनके जानने-चाहने वाले उन्हें वीरेन दा नाम से बुलाते हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में एमए फिर डीफिल करने वाले वीरेन डंगवाल 1971 में बरेली कालेज के हिंदी विभाग से जुड़े। उनके निर्देशन में कई (अब जाने-माने हो चुके) लोगों ने हिंदी पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर मौलिक शोध कार्य किया। इमरजेंसी से पहले निकलने वाली जार्ज फर्नांडिज की मैग्जीन प्रतिपक्ष से लेखन कार्य शुरू करन वाले वीरेन डंगवाल को बाद में मंगलेश डबराल ने वर्ष 1978 में इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार अमृत प्रभात से जोड़ा। अमृत प्रभात में वीरेन डंगवाल 'घूमता आइना' नामक स्तंभ लिखते थे जो बहुत मशहूर हुआ। घुमक्कड़ और फक्कड़ स्वभाव के वीरेन डंगवाल ने इस कालम में जो कुछ लिखा, वह आज हिंदी पत्रकारिता के लिए दुर्लभ व विशिष्ट सामग्री है। वीरेन डंगवाल पीटीआई, टाइम्स आफ इंडिया, पायनियर जैसे मीडिया माध्यमों में भी जमकर लिखते रहे। वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, कानपुर की यूनिट को वर्ष 97 से 99 तक सजाया-संवारा और स्थापित किया। वे पिछले पांच वर्षों से अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक थे।

वीरेन का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को 'रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार' (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृष्टा' 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। वीरेन डंगवाल हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी व बौद्धिकता एक साथ मौजूद है। वीरेन डंगवाल पेशे से रुहेलखंड विश्वविद्यालय के बरेली कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर, शौक से पत्रकार और आत्मा से कवि हैं। सबसे बड़ी बात, बुनियादी तौर पर एक अच्छे-सच्चे इंसान। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी खुद की कविताएं बांग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में छपी हैं।

पिछले साल वीरेन डंगवाल के मुंह के कैंसर का दिल्ली के राकलैंड अस्पताल में इलाज हुआ। उन्हीं दिनों में उन्होंने 'राकलैंड डायरी' शीर्षक से कई कविताएं लिखी। ये और लगभग 70 अन्य नई कविताएं जल्द ही एक कविता संग्रह 'कटरी की रुक्मिणी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा' शीर्षक से प्रकाशित होने वाली हैं। यह तीसरा काव्य संग्रह सात वर्षों बाद आ रहा है। वीरेन डंगवाल ने पत्रकारिता को काफी करीब से देखा और बूझा है। जब वे अमर उजाला, कानुपर के एडिटर थे, तब उन्होंने 'पत्रकार महोदय' शीर्षक से एक कविता लिखी थी, जो इस प्रकार है-


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पत्रकार महोदय

'इतने मरे'

यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर

छापी भी जाती थी

सबसे चाव से

जितना खू़न सोखता था

उतना ही भारी होता था

अख़बार।



अब सम्पादक

चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी

लिहाज़ा अपरिहार्य था

ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।

एक हाथ दोशाले से छिपाता

झबरीली गरदन के बाल

दूसरा

रक्त-भरी चिलमची में

सधी हुई छ्प्प-छ्प।



जीवन

किन्तु बाहर था

मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली

चीख़ के बाहर था जीवन

वेगवान नदी सा हहराता

काटता तटबंध

तटबंध जो अगर चट्टान था

तब भी रेत ही था

अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !


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वीरेन डंगवाल से संपर्क dangv@rediffmail.com के जरिए किया जा सकता है। उनके बारे में ज्यादा जानने के लिए और उनके लिखे को पढ़ने के लिए इन अड्डों पर भी जा सकते हैं-

विकिपीडिया
कबाड़खाना
टूटी हुई बिखरी हुई
रचनाकार
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दुष्चक्र में सृष्टा
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अनुनाद
कृत्या
पोयमहंटर

बोलता पोस्टर


वाराणसी से बसपा उम्मीदवार मुख्तार अंसारी का पोस्टर
सौजन्य: आनंद प्रधान

पॉल एलुआर की एक बहुत छोटी कविता


पॉल एलुआर के अनुवादों के क्रम में आज उन की एक बहुत छोटी कविता:


सत्य

दुख के पंख नहीं होते
न ही प्यार के
न कोई चेहरा
वे बोलते नहीं.
मैं हिलता-डुलता नहीं
मैं उनकी ओर टकटकी लगाए नहीं देखता
मैं उनसे बात नहीं करता
लेकिन वास्तविक हूं
मैं अपने दुख और प्यार की तरह

Wednesday, April 15, 2009

'लोकसरस्वती' का लोकसंगीत : दो प्रस्तुतियाँ ( एक कड़ी और )

आज एक पत्रिका में पढ़ा कि एक सर्वेक्षण के मुताबिक अब दस में से चार लोग ही अपनी कलाई में घड़ी बाँधते हैं.शायद यह मोबाइल फोन की माया है ! यह घड़ी भी क्या चीज है - छोटी-सी मशीनी डिबिया जो पल - पल का हिसाब बतलाती है और दिल धड़काती है. घड़ी- चर्चा से मुझे एक गीत याद आ गया जिसे आपकी सेवा में प्रस्तुत करने का मन है. यह गीत 'लोकसरस्वती' का है जिसके बारे में पिछले साल जुलाई में 'लोकसरस्वती का लोकसंगीत : दो प्रस्तुतियाँ' शीर्षक एक पोस्ट 'कबाड़खाना' पर लगाई थी जिसे बहुत पसंद किया गया था. २८ जुलाई २००८ की पोस्ट में 'लोक्सरस्वती ' के परिचय में जो कुछ लिखा गया था उसे यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ -

" एक थे बाबू काली दासगुप्ता (१९२६ - २००५)। उनका परिचय बस इतना भर नहीं है कि एक सक्रिय और सजग राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने 'जन' से अपने जुडा़व को प्रचार और प्रोपेगैंडा तक सीमित रखते हुए एक साधारण और सामान्य जीवन जिया. वाम राजनीति से सच्चा , सक्रिय और समर्पित जुड़ा़व ही उन्हें लोक और उसकी सांस्कृतिक थाती लोकसंगीत तक ले गया, अपने स्तर पर काली बाबू ने जनजीवन से अपनी निकटता को संगीत के जरिए न केवल जोड़ा बल्कि उसे बचाने का सार्थक प्रयास भी किया. अपने कार्यक्षेत्र बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के नदी-नालों, चायबागानों.बस्ती-बस्ती,परबत-परबत घूमते हुए वे श्रमिकों -कामगारों, मछुआरों-मल्लाहों, बुनकरों-रंगरेजों और उन तमाम लोगों के निकट जाक उस संगीत को सहेजने की जुगत में लगे रहे जिसे 'श्रम संगीत' कहा जाता है. इसकी प्रेरणा उन्हें १९६५ के अपने इंगलैंड दौरे के बाद मिली. उन्होंने देखा कि पश्चिम में काफ़ी लोग साधारण जनता की जीवनशैली, उसकी ताकत ,कमजोरियों और अतीत तथा स्वप्न के बीच संगति-विसंगति को समझने के लिए 'जनसंगीत' को एक औजार, उपकरण या टूल के रूप सफ़लता पूर्वक प्रयोग करे हैं. यह काम उन्हें भा गया. इस काम लिये उन्होने 'लोकसरस्वती' नाम से अपनी एक संगीत मंडली तैयार की जिसमे उनके साथ पूरबी भट्टाचार्य, सुस्मिता सेन, जॊली बागची, विश्वनाथ दत्ता, विमल दे, भास्कर राय, सौमिक दास, निरंजन हालदार, गौर पॊल, देवीप्रसाद मंडल और कुछ अन्य साथियों को मिलाकर जीवन भर उस संगीत को बचाने के काम में लगे रहे जो जनता और उसके श्रम का संगीत है- जनसंगीत.

काली दासगुप्ता का काम बिखरा पडा़ है। कुछ सीडीज में(प्राय: अप्राप्य), कुछ भारत भवन और नेशनल सेंटर फ़ॊर परफ़ार्मिंग आर्ट्स जैसी संस्थाओं के पास. लुप्त होती होती हुई धुनों को बचाकर, उन्हें पुन: प्रस्तुत कर वे तो अपना काम तो कर गये लेकिन उनकी थाती को सहेजना, समझना, सराहना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारा काम है."

आज प्रस्तुत हैं 'लोकसरस्वती' की दो और प्रस्तुतियाँ -

१. ओगो माँ लोक्खी-सोरोसती.......



पहला गीत उत्तरी बंगाल के ग्रामीण इलाके में आयोजित एक संगीत सभा की शुरुआत में गायक द्वारा देवी लक्ष्मी - सरस्वती की वंदना और सुधी श्रोताओं के प्रति हार्दिक आभार प्रदर्शन को प्रकट करता है. गायक की कामना है कि उसके एक पार्श्व में भवतारिणी विराजें व दूसरी ओर संगीत की आराध्या देवी. हिन्दू -मुसलमान सभी श्रोताओं के प्रति नतशीश गायक की गुजारिश है कि यदि कोई त्रुटि होती है तो उसे अपना ही बच्चा समझकर क्षमा कर दिया जाय.

२. की चोमोत्कार घोरी.......




दूसरा गीत घड़ी नामक उस यंत्र से संबंधित है जिसने आज यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा दी है.असम के गोवालपाड़ा / ग्वालपाड़ा क्षेत्र की गँवई स्त्रियों के लिए घड़ी एक चमत्कार है जिसे साहब लोग पहनते हैं ,साधारण आदमी के बूते की तो बात ही नहीं यह . हाँ , अगर कोई एम. ए. , बी. ए. पास कर ले और वकील - मुख्तार बन जाये तब उसे यह सौभाग्य मिल सकता है.

Tuesday, April 14, 2009

जनाभिमुख था बाबासाहेब अम्बेडकर का अर्थशास्त्र

भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार एवं भारतरत्न बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की आज ११८वीं जयन्ती है (१४ अप्रैल २००९). समाज ने उन्हें 'दलितों का मसीहा' की उपाधि भी दी है. भारतीय समाज में स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए उन्होंने कई क्रांतिकारी स्थापनाएं दीं हैं. कहते हैं कि कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश (Maternity Leave) का विचार डॉक्टर अम्बेडकर ही पहले पहल सामने लाये थे.

दलितों की अवस्था को सुधारने के लिए प्रयास तो गौतम बुद्ध के समय से ही शुरू हो गए थे. बुद्ध के बाद भारतीय समाज में कई संत और समाज सुधारक हुए हैं जिन्होंने दलितों की दीनदशा के लिए आंसू बहाए हैं लेकिन ज़मीनी कार्य पहली बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने ही किया. उन्होंने यह क्रांतिकारी समझ दी कि दलितों को अपनी दशा खुद सुधारना होगी. किसी की दया पर उनकी हालत नहीं बदल सकती. इसलिए उन्हें शिक्षित होना पड़ेगा, संगठित होना पड़ेगा और नेतृत्व करना पड़ेगा. दलितों को संगठित करने के लिए रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की रूपरेखा उन्होंने ही बनाई थी, यह बात और है कि पार्टी उनके महाप्रयाण के पश्चात ही अस्तित्व में आ सकी. ख़ैर...

डॉक्टर अम्बेडकर के योगदान को आम तौर पर सार रूप में हम सभी जानते हैं लेकिन आज मैं उनके एक और रूप से परिचित कराता हूँ. और वह रूप है उनके अर्थशास्त्री होने का.

पहले विश्वयुद्ध के बाद भारतीय मुद्रा विनिमय की व्यवस्था में आमूलचूल सुधार करने के उद्देश्य से सन् १९२४ में रॉयल कमीशन ऑफ़ इंडियन करेंसी एंड फायनांस की स्थापना लन्दन में की गयी थी. प्रख्यात अर्थशास्त्री ई. हिल्टन यंग की अध्यक्षता में यह आयोग १९२५ में भारत आया. इसमें आरएन मुखर्जी, नॉरकोट वारेन, आरए मन्ट, एमबी दादाभाय, जेसी कोयाजी और डब्ल्यू ई. प्रेस्टन जैसे विद्वानों की मंडली इस आयोग की सदस्य थी. भारतीय मुद्रा विनिमय की व्यवस्था में सुधार के अंगों को चिह्नित करने के लिए इस आयोग ने ९ प्रश्नों की एक सूची तैयार की और सम्पूर्ण भारत की अवस्था के मद्देनजर विचार-विमर्श करने लगे.

इसी सिलसिले में १५ दिसम्बर सन् १९२५ को डॉक्टर अम्बेडकर ने इस आयोग के सामने पूरी प्रश्नावली को लेकर अपने बिन्दुवार और आँख खोल देने वाले स्पष्ट विचार रखे. इस प्रश्नावली का चौथा प्रश्नसमूह था- 'निश्चित की गयी विनिमय दर पर रुपये को दीर्घकाल तक स्थिर रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? विश्वयुद्ध के पहले से चली आ रही सुवर्ण विनिमय प्रणाली (Gold Exchange Standard System) इसी रूप में आगे चलानी चाहिए या इसमें कुछ फेरबदल किए जाएँ? स्वर्ण भण्डार का स्वरूप क्या होना चाहिए? यह भण्डार कितना होना चाहिए तथा कहाँ रखा जाना चाहिए?'

प्रश्न क्रमांक ४ के उत्तर में डॉक्टर अम्बेडकर ने आयोग को बिन्दुवार समझाया था कि स्वर्ण विनिमय प्रणाली जनता की भलाई में किस प्रकार बाधक है, यह प्रणाली असुरक्षित क्यों है, और कैसे अस्थिर है. उन्होंने यह भी समझाया कि इस विनिमय प्रणाली के तहत सरकार को मिली नोट छापने की खुली छूट जनता के लिए किस तरह नुकसानदायक है. डॉक्टर अम्बेडकर की आयोग के साथ चली यह प्रश्नोत्तरी मिनिट्स ऑफ़ इवीडेन्स में दर्ज़ है.

मिनिट्स में दर्ज़ बयान के छठवे बिंदु में आम्बेडकर ने तत्कालीन समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था की औद्योगिक एवं व्यापारिक परिस्थिति, प्राकृतिक आपदा, जनता की सहूलियत, लोगों के स्वभाव और सम्पूर्ण जनता का हित जैसे महत्वपूर्ण पक्षों को ध्यान में रखते हुए उपाय सुझाए थे. जैसे कि उन्होंने कहा था कि टकसाल में उचित मूल्य वाली स्वर्ण मुद्राएँ ही ढाली जाएँ. इसके अलावा इन स्वर्ण मुद्राओं तथा प्रचलित रुपये का परस्पर विनिमय मूल्य पक्का किया जाए. उन्होंने यह सुझाव भी दिया था कि प्रचलित रुपया सोने के सिक्के में परिवर्त्तनीय नहीं होना चाहिए, इसी तरह सोने का सिक्का भी प्रचलित रुपये के स्वरूप में परिवर्त्तनीय नहीं होना चाहिए. होना यह चाहिए कि दोनों का परस्पर मूल्य निश्चित करके पूर्ण रूप से दोनों को नियमानुसार चलन में लाया जाना चाहिए.

डॉक्टर आंबेडकर जानते थे कि भारतीय जनता की भलाई के लिए रुपये की कीमत स्थिर रखी जानी चाहिए. लेकिन रुपये की यह कीमत सोने की कीमत से स्थिर न रखते हुए सोने की क्रय शक्ति के मुकाबले स्थिर रखी जानी चाहिए. इसके साथ-साथ यह कीमत भारत में उपलब्ध वस्तुओं के मुकाबले स्थिर रखी जानी चाहिए ताकि बढ़ती हुई महंगाई की मार गरीब भारतीय जनता को बड़े पैमाने पर न झेलनी पड़े. एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने आयोग के सामने कहा था कि रुपये की अस्थिर दर के कारण वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ती हैं लेकिन उतनी ही तेजी से मजदूरी अथवा वेतन नहीं बढ़ता है. इससे जनता का नुकसान होता है और जमाखोरों का फ़ायदा.

रॉयल कमीशन ऑफ़ इंडियन करेंसी एंड फायनांस के सामने दिए गए डॉक्टर अम्बेडकर के तर्कों को पढ़कर कहा जा सकता है कि भारत के आर्थिक इतिहास का वह एक महत्वपूर्ण पन्ना है.