सुबह आपको पॉल साइमन के अल्बम ग्रेसलैण्ड से शीर्षक गीत सुनवाया था. अब उसी अल्बम से मेरा एक और प्रिय गीत अन्डर अफ़्रीकन स्काई-
Joseph's face was black as night The pale yellow moon shone in his eyes His path was marked By the stars in the southern hemisphere And he walked his days Under african skies This is the story of how we begin to remember This is the powerful pulsing of love in the vein After the dream of falling and calling your name out These are the roots of rhythm And the roots of rhythm remain
In early memory Mission music Was ringing 'round my nursery door I said take this child, lord From tucson arizona Give her the wings to fly through harmony And she won't bother you no more
This is the story of how we begin to remember This is the powerful pulsing of love in the vein After the dream of falling and calling your name out These are the roots of rhythm And the roots of rhythm remain
Joseph's face was black as night And the pale yellow moon shone in his eyes His path was marked By the stars in the southern hemisphere And he walked the length of his days Under african skies
बेहद मीठी आवाज़ के धनी अमेरिकी मूल के गायक पॉल साइमन ने अपने कैरियर की शुरूआत १९६० के दशक के मध्य अपने साथी आर्ट गार्फ़न्कल के साथ की थी और साइमन एन्ड गार्फ़न्कल नाम से अपने अल्बम निकाले. अधिकांश गीत ख़ुद पॉल लिखा करते थे. दोनों ने मिलकर कई सुपरहिट गीत रचे. मिसेज़ रॉबिन्सन और ब्रिज ओवर ट्रबल्ड वाटर्स जैसे गीत अमेरिकी लोकप्रिय गीतों के चार्ट में पहले नम्बर तक पहुंचे. १९७० में जब यह जोड़ी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी, दोनों ने अपने रास्ते अलग अलग कर लिए. इसके बाद पॉल का सोलो कैरियर अत्यधिक लोकप्रियता और सफलता से भरपूर रहा है.
१९८६ में निकाला गया उनका अल्बम ग्रेसलैण्ड दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेद विरोधी आन्दोलन के समर्थन में तैयार किया गया था. अपनी थीम और संगीत-प्रयोगों के कारण यह अल्बम बहुत चला. साइमन ने कुल १३ ग्रैमी अवार्ड्स जीते हैं जिनमें एक लाइफ़टाइम अचीवमेन्ट अवार्ड शामिल है. २००६ में टाइम मैगज़ीन ने पॉल साइमन को उन सौ लोगों की सूची में जगह दी जिन्होंने दुनिया को ढालने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थीं.
आज सुनिये उनकी आवाज़ में ग्रेसलैण्ड अल्बम से इसी शीर्षक वाला उनका गीत:
The Mississippi Delta was shining Like a National guitar I am following the river Down the highway Through the cradle of the civil war
I'm going to Graceland Graceland In Memphis Tennessee I'm going to Graceland Poorboys and Pilgrims with families And we are going to Graceland My traveling companion is nine years old He is the child of my first marriage But I've reason to believe We both will be received In Graceland
She comes back to tell me she's gone As if I didn't know that As if I didn't know my own bed As if I'd never noticed The way she brushed her hair from her forehead And she said losing love Is like a window in your heart Everybody sees you're blown apart Everybody sees the wind blow
I'm going to Graceland Memphis Tennessee I'm going to Graceland Poorboys and Pilgrims with families And we are going to Graceland
And my traveling companions Are ghosts and empty sockets I'm looking at ghosts and empties But I've reason to believe We all will be received In Graceland
There is a girl in New York City Who calls herself the human trampoline And sometimes when I'm falling, flying Or tumbling in turmoil I say Oh, so this is what she means She means we're bouncing into Graceland And I see losing love Is like a window in your heart Everybody sees you're blown apart Everybody sees the wind blow
In Graceland, in Graceland I'm going to Graceland For reasons I cannot explain There's some part of me wants to see Graceland And I may be obliged to defend Every love, every ending Or maybe there's no obligations now Maybe I've a reason to believe We all will be received In Graceland
यह पोस्ट दीपा पाठक ने अपने ब्लॉगपर लगाई थी. द स्टोरी ऑफ़ स्टफ़ नाम की फ़क़त इक्कीस मिनट की एक डॉक्यूमेन्ट्री पर लिखी यह पोस्ट दुनिया पर मंडरा रहे एक आसन्न संकट को रेखांकित करती है. मेरा मानना है कि हर किसी जागरूक व्यक्ति ने इस फ़िल्म को देखना चाहिये और जहां तक मुमकिन हो ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को दिखाने की कोशिश करनी चाहिये. पोस्ट के लिए दीपा का आभार
ऐसा कितनी बार होता है जब आप बाजार जाते हैं और किसी आकर्षक चीज पर नजर पड़ते ही उसे खरीद लेते हैं, बिना यह सोचे कि उसकी जरूरत है भी या नहीं? क्या आप भी जानते हैं ऐसे लोगों को जो दुकानों पर सेल यानी कीमतों में तथाकथित छूट की खबर लगते ही लपक लेते हैं खरीददारी करने? त्यौहार के मौकों पर बाजारों और मॉल्स पर उमड़ने वाली उन्मादी भीड़ को देख कर आपको नहीं लगता कि खरीददारी अब एक जरूरत न हो कर शौक बन गई है? बहरहाल, मैं बहुत सारे ऐसे लोगों को जानती हूं जिनके घर अंटे पड़े हैं चीजों से लेकिन उन्हें खरीददारी का ऐसा शौक या कहूं कि रोग है कि वो किसी गलत दुकान में भी घुस जाएं तो भी बिना खरीदे बाहर नहीं निकल सकते। कई लोग हैं जो जब उदास होते हैं तो मन खुश करने के लिए खरीदारी करते हैं और जब खुश होते हैं तो उसे मनाने के लिए खरीदारी करते हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि चीजें खरीदने की यह लिप्सा ही हमारे समय की लगभग सारी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं की जड़ है? क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि चीजें खरीदने की यह भूख ही हमारी दुनिया से सारी हरियाली खत्म कर रही है, हमारी नदियों को विषैला कर रही हैं? क्या आप सोच भी सकते है कि सामाजिक अन्याय के लिए भी लोगों का यही उपभोक्तावाद जिम्मेदार है। पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच की खाई को और चौड़ा करने, सरकारों को बड़े कॉरपोरेशनों को प्रश्रय देने की प्रवृति के पीछे भी यही कारण है? सुनने में बहुत अतिश्योक्तिपूर्ण और अटपटा सा लग रहा है न? लेकिन अगर आप ऐनी लियोनार्ड की केवल 20 मिनट की फिल्म 'Story of stuff' देखेंगे तो इन सारे असंगत से लगते तथ्यों को आपस में जोड़ कर देख पाना न केवल आसान होगा बल्कि आप सोच में भी पड़ जाते हैं कि इतनी सीधी सी बात आम आदमी के समझ में क्यों नहीं आती।
आज जब मौसमों के रंग-ढंग बदले-बदले से नजर आ रहे हैं तो हर कोई ग्लोबल वॉर्मिंग का रोना रो रहा है लेकिन कोई यह सुनने को तैयार नहीं है कि भाई इसके लिए कहीं न कहीं हम, हमारी जीवन शैली भी जिम्मेदार है। उपभोक्तावाद प्राकृतिक संसाधनों का बुरी तरह से दोहन करता है, इस धरती को प्रदूषित कर रहा है, इंसान में जहर भर रहा है, जीव जातियों को समाप्त कर रहा है, लोगों को गरीबी की ओर धकेल रहा है और इन सबके बीच ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण बन रहा है।
उपभोक्ता आज छोटे के बाद बड़ा घर, बड़ी कार, सेलफोन का नया मॉडल या आधुनिकतम फैशन के कपड़े-जूते की भूख से जूझ रहा है। पड़ोसी की समृद्धि की जलन में सारा सुख-चैन भुलाए बैठा यह उपभोक्तावर्ग भला क्यों कर सोचेगा कि ये सारी चीजें दरअसल उसके लिए सुख का नहीं बल्कि दुख का कारण बन रही हैं। शोध के परिणामों पर गौर करें तो पता चलता है कि आज का आदमी भले ही समृद्धि के पैमाने पर बहुत आगे पहुंच गया हो लेकिन सुखी जीवन जीने के मामले में वह अपनी पिछली पीढ़ियों के मुकाबले पीछे होता जा रहा है। The story of stuff का संदेश यही है कि जरूरतों को कम करो और दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने में सहयोग दो।
हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता ऐनी लियोनार्ड की 2007 में बनी यह ऐनीमेशन फिल्म पूरी तरह से अमेरिकी उपभोक्तावाद पर कटाक्ष करती है। इसमें दिए गए सारे आंकड़े भी अमेरिकी व्यवस्था पर आधारित हैं लेकिन तथ्य के दृष्टिकोण से यह लगातार बाजारोन्मुख हो रही दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं की सच्चाई है। आखिरकार अगर वह कहती हैं कि दुनिया के 80% जंगल खत्म हो चुके हैं या अमेजन में हर मिनट में 2000 पेड़ कट रहे हैं तो यह सारी दुनिया की साझी चिंता है।
इस फिल्म की सबसे दिलचस्प बात यह है कि केवल 20 मिनट में यह बहुत खूबसूरती से और तर्कसंगत तरीके से उपभोक्तावाद का पूरा अर्थशास्त्र समझा देती है। इस फिल्म के लिए ऐनी ने काफी देशों की यात्राएं की, प्रामाणिक तथ्य जुटाने के लिए शोध किए और बहुत गंभीर मुद्दे को बिल्कुल भी बोझिल बनाए बिना एक दिलचस्प ऐनीमेशन फिल्म बना डाली। छोटी फिल्म होने के कारण इसे बच्चों के लिए काफी प्रभावशाली माना गया। हालांकि अमेरिका में इस फिल्म का विरोध भी काफी हुआ, कई स्कूलों में इस फिल्म को प्रतिबंधित भी किया गया।
पूंजीवाद समर्थक लोगों के पास ऐनी की फिल्म का विरोध करने के अपने तर्क हैं जो आंकड़ों के स्तर कर एकाध जगह अगर उन्हें गलत साबित कर भी देते हैं तो उससे पूरी फिल्म की सार्थकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 20 मिनट की यह फिल्म सात छोटे-छोटे हिस्सों में बंटी हैं जिसमें दिखाया गया है कि हमारी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होता है, कैसे चीजों का उत्पादन होता है, कैसे उनका वितरण होता है, कैसे उत्पादों की खपत होती है, और कैसे चीजों से पैदा होने वाले कचरे का निस्तारण होता है। इस ऐनीमेशन फिल्म के जरिए वह बहुत प्रभावशाली ढंग से समझाती हैं कि इस उत्पाद के बनने से ले कर उसके कचरे में तब्दील होने की प्रक्रिया के बीच कितना कुछ नकारात्मक पैदा होता है जो इस दुनिया को बद से बदतर बना रहा है। नई चीजें खरीदने के बाद पुरानी चीज को कचरे में डाल कर हम इस दुनिया को कूड़ाघर में बदलते जा रहे हैं।
इतनी छोटी सी फिल्म का बहुत बड़ी सी समीक्षा करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यह फिल्म और उससे जुड़ी तमाम बातें www.storyofstuff.com पर मौजूद है। फिल्म देखिए और अगली बार जब कोई चीज खरीदने लगें तो सोचिएगा जरूर कि उसकी जरूरत सचमुच है क्या
यह पीली टैक्सी नाम का एक गाना है जिसे बॉब डिलान समेत तमाम कलाकारों ने अलग-अलग काल में गाया है। इसमें समकालीन भारतीय विकास का अक्स झिलमिलाता है इसलिए यहां आपकी नजर पेश किया जा रहा है। उनने बिछाई जन्नत और एक पार्किंग की आबाद एक गुलाबी होटल, एक बुटिक- झूमते नाइट क्लब के साथ हमेशा ऐसे नहीं होता रहेगा यही नहीं जानते क्या? जो था, उसे जान पाते हैं आप खो जाने के बाद बिछाई उनने जन्नत और एक पार्किंग की आबाद।
ले गए वे पेड़ सारे, पेड़ वाले अजायबघर वसूलने लगे फी आदमी डेढ़ डालर बस, उन्हें ताकने के लिए लगता नही कि चल पाएगा ऐसा सदा क्योंकि जो था, उसे जान पाते हैं हम खो जाने के बाद उनने बिछाई जन्नत और एक पार्किंग की आबाद।
ऐ विकास, मुनाफेलाल अब हटाओ अपना डीडीटी भले रहें मेरे अमरूदों पर दाग लेकिन कृपा करो, छोड़ दो मेरी चिड़ियां और मधुमक्खियां नहीं चलेगा ऐसा हमेशा क्योंकि गोया कि तुम नहीं जानते? क्या था, उसे जान पाते हैं हम खो जाने के बाद उनने बिछाई जन्नत और एक पार्किंग की आबाद।
सुना मैने दरवाजे का ढहना कल रात एक बड़ी पीली टैक्सी उठा ले गई बाबूजी को ऐसे ही नहीं चलेगा यह हमेशा क्योंकि तुम इतना भी नहीं जानते क्या? जो था, उसे जाना मैने कल खोने के बाद उन्होंने बिछाई जन्नत और एक पार्किंग की आबाद।
बताओ लाला गांधीगीरी या इन्किलास जिन्नाबाद क्या करूं आज की रात। (शब्द हमारे जोर भी हमारा)
सीरिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में गिने जाने वाले महान अरबी कवि निज़ार कब्बानी (1923-1998) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत है उनकी एक और कविता :
निज़ार कब्बानी की कविता
कुछ अलग शब्दों में ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
मैं तुम्हारे बारे में कुछ अलग शब्दों में लिखना चाहता हूँ
तुम्हारे अकेले के लिए ईजाद करना चाहता हूँ एक भाषा
जिसमें समा सके तुम्हारी देह
और जिससे मापा जा सके मेरा प्यार ।
मैं शब्दकोशों से बाहर की यात्रायें करना चाहता हूँ
मैं छोड़ देना चाहता हूँ होठों को
थक गया हूँ अपने मुख से
कोई अलग - सी चीज चाहता हूँ
जिससे बदल सके
चेरी का एक वृक्ष या माचिस की एक डिबिया।
मैं चाहता हूँ एक ऐसा मुख
जिससे निकलें शब्द ठीक वैसे ही
जैसे समुद्र से निकलती हैं जलपरियाँ
जैसे जादूगर के हैट से उछल कर निकलते हैं सफेद चूजे।
ले जाओ सारी किताबें
जिन्हें मैंने बचपन में पढ़ा था
ले जाओ मेरे स्कूली नोटबुक्स
ले जाओ चाक
कलमें
और ब्लैकबोर्ड्स
लेकिन मुझे सिखा दो एक नया शब्द
जिसे मैं अपने प्रियतम के कानों में पहना सकूँ
इयरिंग्स की तरह।
मुझे चाहिए नई उंगलियाँ
जिनसे मैं लिख सकूँ दूसरी तरह
लिखूँ इतना ऊँचा जैसे होते हैं जहाजों के मस्तूल
लिखूँ इतना ऊँचा जैसी होती है जिराफ़ की ग्रीवा
और मैं अपने प्रियतम के लिए सिल सकूँ
कविता की एक पोशाक।
मैं तुम्हें एक अनोखे पुस्तकालय में बदल देना चाहता हूँ
जिसमें मुझे चाहिए :
बारिश की लय
सितारों की धूल
स्लेटी बादलों की उदासी
और शरद ऋतु के चक्के तले पिसती
विलो की गिरती हुई पत्तियों का संताप।
सतीश आचार्य काफ़ी प्रतिभावान कार्टूनिस्ट हैं. उन्होंने किसी भी तरह की कोई औपचारिक कला शिक्षा प्राप्त नहीं की. और एम बी ए की पढ़ाई बीच में छोड़कर पेशेवर कार्टूनिस्ट बन गए. आज दिखाता हूं आई पी एल को लेकर उनके बनाए चन्द कार्टून:
अनीता वर्मा जी समकालीन हिन्दी कविता में एक सुपरिचित नाम हैं. इस ब्लॉग पर उनकी कविताएं एकाधिक बार प्रस्तुत की गई हैं और भरपूर सराही गई हैं हाल ही में उन्हें शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया है. उन्हें इस उपलब्धि के लिए कबाड़ख़ाना हार्दिक बधाई देता है. पढ़िये उनके पहले संग्रह से एक छोटी सी कविता:
बुज़ुर्गों से
हम चलते रहे अपनी चाल आपको पीछे कर चुप्पी को अनसुनी कर हम गिरते रहे अपने हाल दरवेश क़िस्से सुनाते रहे नौजवान पेंचें लड़ाते रहे इसी बीच बाज़ार में बिकने लगे नाती-पोते.
***खेतों में गेहूँ की फसल लगभग कट चुकी है लेकिन हर ओर भूसा बिखरा पड़ा है और ऊपर से गर्मी का अजब हाल है। कुल मिलाकर यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि साहब खेतों में भूसा अपनी जगह लेकिन गर्मी के मारे अपना तो भुस भरा हुआ है। ऐसे में कोई तो कुछ तो है जिनसे / जिससे थोड़ी राहत - सी मिल जाती है। इस तरह की चीजों में कविता और संगीत का अहम रोल है. सो आज और अभी अपनी पसंद की एक ग़ज़ल साझा करने का मन है. आइए इसे सुनें और अनदेखी सी रह गई एक खूबसूरत फिल्म 'अंजुमन' को याद करते हुए शायरी और संगीत की जुगलबंदी का आनंद लेवें> सदा आनंदा रहें यहि द्वारे...
गुलाब जिस्म का यूं ही नहीं खिला होगा। हवा ने पहले तुझे फिर मुझे छुआ होगा।
शरीर- शोख किरन मुझको चूम लेती है, जरूर इसमें इशारा तेरा छुपा होगा।
म्रेरी पसंद पे तुझको भी रश्क आएगा, कि आइने से जहां तेरा सामना होगा।
ये और बात कि मैं खुद न पास आ पाई, प' मेरा साया तो हर शब तुझे मिला होगा।
ये सोच - सोच के कटती नहीं है रात मेरी, कि तुझको सोते हुए चाँद देखता होगा।
मैं तेरे साथ रहूंगी वफ़ा की राहों में, ये अहद है न मेरे दिल से तू जुदा होगा।
रेने दॉमाल (१९०८-१९४४) की किताब 'माउन्ट एनालॉग' का उपशीर्षक बेहद दिलचस्प लगा था: 'अ नॉवेल ऑफ़ सिम्बॉलिकली ऑथेन्टिक नॉन-यूक्लीडियन एडवेन्चर्स इन माउन्टेन क्लाइम्बिंग'। पर्वतारोहण में स्वयं मेरी काफ़ी दिलचस्पी रही है और शुक्र है उम्र के बीतते जाने के बावजूद बची हुई है। मेरे मित्र थे श्री दुर्गा चरण काला। मित्र क्या थे, गुरु थे। जीवन का लम्बा समय पत्रकारिता में गुज़ारने के बाद उन्होंने अपना आखि़री समय रानीखेत में गुज़ारा। 'जिम कॉर्बेट ऑफ़ कुमाऊं' और 'हुल्सन साहिब' (हरसिल एस्टेट के विख्यात फ़्रैडरिक विल्सन की पहली आधिकारिक जीवनी) जैसी ऐतिहासिक महत्व की किताबें लिख चुके काला जी (जिन्हें हम लोग काला मामू कहा करते थे) पिछले साल नहीं रहे। ख़ैर। सड़्सठ साल की आयु में रूपकुंड जैसा भीषण मुश्किल ट्रैक कर चुकने वाले काला मामू की लाइब्रेरी में रखी 'माउन्ट एनालॉग' उनकी सबसे प्रिय किताबों में थी। वहीं से मैं इस किताब की फ़ोटोकॉपी करा के लाया था। सो किताब का हर पन्ना पढ़ते हुए उनकी और उनके साथ बिताए समय की याद आना लाज़िमी था। काला मामू पर विस्तार से कभी लिखूंगा।
फ़्रांसीसी मूल के कवि, लेखक और चिंतक रेने दॉमाल की शुरुआती कविताओं को आन्द्रे ब्रेतों और दादा ने प्रकाशित किया। गुर्जेफ़ जैसे महान दार्शनिक के अनुयायी रेने दॉमाल ने स्वयं संस्कृत सीखी और कुछेक किताबों का संस्कृत से फ़्रैंच में तर्ज़ुमा भी किया। कुल ३६ साल की उम्र में चल बसे दॉमाल को बीसवीं सदी के सबसे प्रतिभाशाली लेखकों में गिना जाता था।
'माउन्ट एनालॉग' एक काल्पनिक पर्वत के आरोहण का वर्णन है। यह एक ऐसा पहाड़ है जिसे देखा नहीं बल्कि समझा जाना होता है। उसे एक विशेष स्थान से ही देखा/समझा जा सकता है जहां सूर्य की किरणें धरती पर एक ख़ास कोण पर पड़ती हैं। 'माउन्ट एनालॉग' एक अधूरी रचना है और अपने मरने के दिन तक दॉमाल इस पर काम कर रहे थे।
इस छोटी सी किताब ने मुझे कई बार उद्वेलित किया है। कल रात मैंने इसे संभवत: पांचवीं बार ख़त्म किया तो सोचा इस का ज़िक्र ज़रूर किया जाना चाहिए। किताब में उदधृत दॉमाल की एक कविता का अनुवाद ख़ासतौर पर कबाड़ख़ाने के पाठकों के लिए:
मैं मृत हूं क्योंकि मेरी कोई इच्छा नहीं है मेरी कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे पास सब कुछ है मैं समझता हूं कि मेरे पास सब कुछ है क्योंकि मैं देने की कोशिश नहीं करता।
जब आप देने की कोशिश करते हैं तो आप को पता चलता है कि आप के पास कुछ भी नहीं हैं;
जब आप को पता चलता है कि आप के पास कुछ भी नहीं है तो आप ख़ुद को दे देने की कोशिश करते हैं;
जब आप ख़ुद को दे देने की कोशिश करते हैं तो आप देखते हैं कि आप कुछ नहीं हैं;
जब आप देखते हैं कि आप कुछ नहीं हैं तो आप कुछ बनने की कोशिश करते हैं;
जब आप कुछ बनने की कोशिश करते हैं आप जीना शुरू कर देते हैं।
भारतीय कार्यक्रम आते ही हम रेडियो बन्द कर दिया करते थे,अक्सर किसी ऑर्केश्ट्रा कार्यक्रम में ऐसे संगीत के बारे में मिमिक्री आर्टिस्ट मिमिक्री करते हुए मज़ाक में यही कहता कि ऐसा गाने के लिये जाड़े की सुबह लोटे -लोटे पानी से नहाने पर जो मुंह से ध्वनि निकलती है वही असली शास्त्रीय संगीत है, बचपन से बहुत से शास्त्रीय संगीत से जुड़े संगीतकारों के नाम सुनते थे उन्हीं में एक बड़े फ़नकार का नाम सुना नाम था बड़े गुलाम अली ख़ान आज उन्हीं से मुत्तालिक़ एक वीडियो यू-ट्यूब पर मिला तो उसे आप भी देखें और धन्य हों। ये वीडियो करीब १५ मिनट का है |
मन बिला वजह थोड़ा ख़राब भी था और गर्मी ने दिमाग के परखच्चे उड़ाए हुए थे. मैंने गर्मी को चिढ़ाने की नीयत से शेक्सपीयर के अपने प्रिय नाटकों में से एक अ विन्टर्स टेल निकाल दिया. कुछ देर मज़ा रहा लेकिन फ़ायदा कुछ ख़ास नहीं हुआ. एक पंक्ति पर निगाह थमी और फिर जैसा था वैसा ही हो गया. आप भी पढ़ें:
What's gone and what's past help Should be past grief.
कबाड़ख़ाने के महत्वपूर्ण सदस्य रवीन्द्र व्यास काफ़ी लम्बे समय से ब्लॉग जगत से नदारद हैं. वे जिन भी कारणों से लिख नहीं पा रहे हैं, उम्मीद करता हूं बहुत गम्भीर नहीं होंगे. उनके शानदार चित्रों और सहृदय लेखन की बानगी आप उनके ब्लॉग हरा कोना पर यहां कबाड़ख़ाने पर कई दफ़ा देख चुके हैं. आज मैं उन्हीं के ब्लॉग से उनकी लिखी एक मार्मिक और संवेदनशील पोस्ट यहां लगाने का साहस कर रहा हूं (वैसे रवीन्द्र भाई इसकी इजाज़त दे चुके हैं).
उड़ते हुए रूई के फाहे
हमारा घर बहुत छोटा था। सदस्य ज्यादा थे। घर के लोगों के हाथ-पैरों पर खरोंचों के निशान थे। हम जब भी घर में आते-जाते तो हमें घर में रखी टूटी आलमारी, कुर्सी, या डिब्बों से खरोंचे लगती थीं। मां ने डिब्बे-डाबड़ी बहुत इकट्ठे कर रखे थे। मुझे पता है, जब एक बार पिताजी खाना खाने बैठे, तो पीछे रखे आटे के टूटे डिब्बे के ढक्कन से उन्हें एक लंबी खरोंच आई थी। उनकी बांईं जांघ पर खून की एक लकीर उभर आई थी।
घर में मां ने डिब्बे एक के ऊपर एक रखे हुए थे। वह कम जगह में ज्यादा से ज्यादा डिब्बे जमा कर रखती थी। उसका मानना था कि गृहस्थी आसानी से नहीं जमाई जा सकती!
कभी-कभी ऐसा होता कि कि मां यदि हल्दी का डिब्बा निकालना चाहती तो पटली पर रखा मिर्ची का डिब्बा गिर जाता। पूरे घर में मिर्ची की धांस उड़ती। ऐसे में पिताजी बड़बड़ाते। पिता को बड़बड़ाता देख मां उन्हें धीरे से देखती। हम भाई-बहन यह देख हंसते। हमें हंसता देखा मां और पिताजी भी धीरे-धीरे हंसते। उन्हें देख हम खूब हंसते। फिर मां-पिताजी भी खूब हंसते। घर में जब कभी कोई दिक्कत आती या दुःख छाने लगता तो मां-पिताजी हंसते। वे नहीं चाहते थे कि छोटे-छोटे दुःखों को हम तक आने दें। यही कारण था कि जब वे हंसते तो हमारे घर पर छाए दुःख रूई के फाहों में बदलकर उड़ने लगते। कभी-कभी मुझे लगता हमारे घर की दीवारों और छतों पर रूई के फाहे चिपके हुए हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देते। हमें आश्चर्य तब होता जब दीवाली-दशहरे के पहले घर में सफाई होती और कहीं भी रूई के फाहे नहीं निकलते।
रात में सोते हुए हमें मां-पिताजी की बुदबुदाहट सुनाई देती। उनमें हमारी फीस, कपड़े, कॉपी-किताबों की चिंता होती। दादी की बीमारी और काकाओं के झगड़ों की बातें होती। मां-पिताजी की आवाज बहुत धीमी होती, इतनी कि दीवारें भी न सुन सकें। मां-पिताजी की ये बातें हमें रात में की गई किसी प्रार्थना के शब्दों जैसी लगती जिन्हें घर की उखड़ती और बदरंग होती दीवारें अपने में सोख लेतीं।
बारिश का मौसम हमारे और हमारे घर के लिए यातनादायक होता था। (यह बात मुझे बहुत बाद में बड़ा होने पर पता लगी ) बारिश में हमारी छत टपकती। घर गीला न हो इसलिए मां जहां पानी टपकता, बर्तन रख देती। कहीं तपेली, कहीं बाल्टी, कहीं गिलास। घर में तब बर्तन भी ज्यादा नहीं थे। कई बार में नमक का डिब्बा खाली कर उसे कागज की पुड़िया में बांध देती और डिब्बा टपकती बूंदों के नीचे। तेज बारिश में हम भाई-बहनों की नींद खुल जाती और हमें मां-पिताजी के प्रार्थना के शब्द सुनाई पड़ते। मां-पिताजी अगली बार छत पर नए कवेलू लगवाने की बात करते। तेज बारिश में उनकी बातों से अजीब वातावरण बन जाता। बाहर पानी की बूंदें टपकती और घर में मां-पिताजी का दुःख। इसी के साथ हम भाई -बहन घर की दीवारों के पोपड़े गिरते सुनते।
दीवार में जहां -जहां से पोपड़े गिरते, सुबह उनमें मां और पिताजी का दुःख काला-भूरा दिखाई देता। मां गोबर और पीली मिट्टी से उन्हें भर देती। घर की दीवार पर ऐसा जगह-जगह था।
ज्यादा बारिश होने से घर की दीवारों में सीलन आ जाती। छत चूने से पटली पर रखी हमारी कॉपी-किताबें गीली होने लगतीं। फिर हमारे कपड़े गीले होते और फिर हमारे बिस्तर। घर कितना गीला हो गया है, यह देखने के लिए जब हम लाइट चालू करने उठते तो हमारे पैर किसी के हाथ, पैर या मुंह पर पड़ते। लाइट जलाने के बाद मां बिस्तर ओटकर हमें सुलाती। सुबह हम भाई -बहन रात वाली बात याद कर खूब हंसते। हम रूई के फाहे उड़ते हुए देखते।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता कि मां और पिताजी हंस नहीं रो रहे हैं, हालांकि वे हमें हंसते हुए ही दिखते।
ठंड के दिनों में खूब मजा आता! हम भाई-बहन बीच में सोने के लिए झगड़तेएक ही रजाई में हम सब सोते। बीच में सोने का फायदा था। रजाई छोटी थी इसलिए जो अगल-बगल में सोते वे रजाई की खींचातानी करते।बीच वाला मजे में रहता। इस तरह हम ठंड से लड़ते।
मुझे सपने नहीं आते। लेकिन एक दिन मुझे सपना आया। मैंने देखा कि पिताजी बर्फ के पहाड़ पर धीरे-धीरे चढ़ रहे हैं। पहले तो मैं उन्हें पहचाना ही नहीं। उनका बदन रूई के फाहों से ढंका हुआ था। ये वही रूई के फाहे थे जो हमारे घर पर छा जाते थे। ये ही दुःख मां-पिताजी के हंसने पर रूई के फाहों में बदल जाते थे। तो मैंने देखा कि पिताजी धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। उनका बदन रुई के फाहों से ढंका है। मैंने उनकी आंखों से पहचाना कि ये तो पिताजी हैं।
धीरे-धीरे वे चढ़ रहे थे। उन्हें बहुत ऊंचाई पर जाना था। बिलकुल शिखर पर , जहां कोमल हरी पत्तियों का पेड़ था। बहुत घना और खूबसूरत पेड़ था वह, जिस पर हमारे तमाम सुख लाल सुर्ख सेबों की तरह उगे हुए थे। वे ही सेब पिता को तोड़कर लाने थे। -हमारे लिए, हमारे घर के लिए...और वे चढ़ रहे थे!
लेकिन मैंने देखा कि वे जितना ऊपर चढ़ने की कोशिश करते, उनके पैर उतने ही धंसते चले जाते। लेकिन पिताजी अपनी पूरी ऊर्जा, पूरी ताकत से धंसते पैरों को निकालकर चढ़ने की कोशिश करते।
अचानक मैंने देखा कि बर्फ का पहाड़ धीरे-धीरे रूई के फाहों के पहाड़ में बदल रहा है। और पिताजी धीरे-धीरे उसमें धंसते चले जा रहे हैं। मैंने देखा पिताजी कमर तक धंस गए हैं फिर गले तक! मैंने उनकी आंखों में चमक कम होती देखी, फिर वह चमक धीरे-धीरे बुझ गई। फिर आखिर में मैंने उनके हिलते और कांपते हुए हाथ देखे....
उसके बाद...उसके बाद घबराहट में मेरी नींद टूट गई। आंखें खोलने पर मैंने देखा कोई बाबाजी मेरे पास बैठे हैं। मैं चौकां। वे तो पिताजी थे और रजाई लपटे बैठे हुए थे। वे बुदबुदा रहे थे। रात के अंधेरे में मेरा ध्यान इस कदर पिताजी की तरफ था कि उनकी प्रार्थना के शब्द मुझे सुनाई नहीं दिए।
सुबह जब हम भाई-बहन उठे, तो मैंने उन्हें अपना सपना सुनाया। मां और पिताजी को बुलाकर भी सुनाया। और वह बात भी बताई कि पिताजी रात में रजाई लपटे कैसे बुदबुदा रहे थे। हम सब खूब हंसे। हमें हंसता देख मां और पिताजी भी खूब हंसे। खूब हंसे।
हमने देखा रुई के फाहे घर में उड़ रहे हैं! आंगन में उड़ रहे रूई के फाहे भी हमने देखे! छतों और दीवारों पर भी रूई के फाहे चिपकते हमने देखे! खूब! खूब! खूब रूई के फाहे हमने उड़ते हुए देखे!
बहुत बाद में जब हम भाई-बहन बड़े और समझदार हुए, हमें पता लगा कि वे रूई के फाहे नहीं, हमारे घर पर अक्सर छा जाने वाले दुःख थे!
कल आपने उस्ताद हामिद अली ख़ां साहेब से सुनी थी मुस्तफ़ा ज़ैदी की ग़ज़ल. आज प्रस्तुत है उन्हीं के बड़े भाई उस्ताद अमानत अली ख़ां साहेब के फ़रज़न्द असद अमानत अली ख़ां से एक पंजाबी कम्पोज़ीशन. यहां बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उस्ताद अमानत अली ख़ां साहेब के असमय देहावसान के बाद हामिद अली खां और असद अमानत अली ख़ां ने जुगलबन्दी भी काफ़ी की है और कई सारी रचनाएं रेकॉर्ड की हैं.
मोन्टे कार्लो में चार्ली चैप्लिन जैसा दिखने की एक प्रतियोगिता चल रही थी. किसी को बताए बिना स्वयं चार्ली भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पहुंच गए. वे तीसरे नम्बर पर रहे.
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एक दफ़ा चार्ली चैप्लिन अपने मित्र मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो से मिलने गए. चैप्लिन का बचपन लन्दन के ईस्ट एन्ड की गुरबत में बिया था और बचपन में सीखे गए उसके सबक ताज़िन्दगी उनके साथ रहे. पाब्लो किसी पेन्टिंग पर काम कर रहे थे. बातों बातों में उनके ब्रश से पेन्ट के कुछ छींटे चार्ली की नई सफ़ेद पतलून पर लग गए. पाब्लो ने झेंपते हुए माफ़ी मांगी और पतलून से रंग साफ़ करने के लिए किसी चीज़ को ढूंढने लगे. चार्ली ने तुरन्त कहा - "छोड़ो पाब्लो! अपनी कलम निकाल कर मेरी पतलून पर अपने दस्तख़त कर दो बस!"
---- १९४० में जब चार्ली ने अपनी फ़िल्म द ग्रेट डिक्टेटर पर काम करना शुरू किया तो अडोल्फ़ हिटलर का मज़ाक उड़ाती इस फ़िल्म की सफलता को लेकर उनके मन में गम्भीर संशय थे. वे अपने दोस्तों से लगातार पूछा करते थे - "सही बताना. मुझे इस फ़िल्म को बनाना चाहिये या नहीं? मान लिया हिटलर को कुछ हो गया तो? या जाने कैसी परिस्थितियां बनें?" चैप्लिन के प्रैय मित्र डगलस फ़ेयरबैंक्स ने चार्ली से कहा - "तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं है चार्ली! यह मानव इतिहास की सबसे चमत्कारिक ट्रिक होने जा रही है - कि दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक और दुनिया का सनसे बड़ा मसखरा, दोनों एक जैसे दिखें. अब अगर मगर बन्द करो और फ़िल्म में जुट जाओ."
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"मुझे अकल्पनीय पैसा मिलता था" एक दफ़ा चैप्लिन ने एक इन्टरव्यू में बताया था "मेरे अकाउन्ट में बहुत पैसा था पर मैंने उसे कभी देखा नहीं था. सो मुझे इस बात को सिद्ध करने के लिए कुछ करना था. सो मैंने एक सेक्रेटरी रखा, एक बटुआ खरीदा, एक कार खरीदी और एक ड्राइवर काम पर लगा दिया. एक शोरूम के बाहर से गुज़रते हुए मैंने सात सवारियों वाली एक कार देखी जिसे उन दिनों अमेरिका में सबसे अच्छी कार माना जाता था. दर असल बेचने के लिहाज़ से वह गाड़ी कहीं अधिक चमत्कारिक थी. खैर मैं भीतर गया और मैंने पूछा - "कितने की है?"
"चार हज़ार नौ सौ डॉलर"
"पैक कर दीजिये" मैंने कहा.
वह आदमी हैरान हो गया और उसने इतनी बड़ी खरीद इतनी जल्दी कर लेना ठीक नहीं समझा "सर आप इन्जन देखना चाहेंगे?"
"क्या फ़र्क पड़ता है - मुझे उनके बारे में कुछ नहीं आता." मैंने कहा. अलबत्ता मैंने गाड़ी के एक टायर को अपने अंगूठे से दबा कर देखा ताकि मैं थोड़ा पेशेवर नज़र आ सकूं.
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विश्व फ़िल्म इतिहास के चुनिन्दा मज़बूत स्तम्भों में एक सर चार्ल्स स्पैन्सर उर्फ़ चार्ली चैप्लिन वर्ष १८८९ में आज ही के दिन पैदा हुए थे.
इन घटनाओं के बाद गिरफ़्तार आदिवासियों को ज़मानत पर छोड़ दिया गया. यह पुलिस विभाग के गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार का एक प्रत्यक्ष उदाहरण था जिसे जनसामान्य का हितचिन्तक समझा जाता है. इसके बाद भेजरीपदर की घटनाओं ने सरकारी तन्त्र को सन्तुष्ट कर दिया था. अब उनकी समझ में यह बात आने लग गई थी कि राजनैतिक अपराधों के लिए बस्तर के आदिवासियों पर दोषारोपण करना निरर्थक है और यह भी कि इन राजनैतिक अपराधों की रोकथाम या उन्हें समाप्त करके उनका सहयोग प्राप्त किया जा सकता है. सरकारी अधिकारियों की सोच की यह दिशा अधिक स्वाभाविक थी. इसके कुछ समय बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री भगवन्तराव मण्डलोई ने समाचार संवाददाताओं को एक बयान में बताया था कि कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स को हटा लेने का समय आ गया है किन्तु इस प्रक्रिया को पूरा करने में थोड़ा समय लग सकता है. इसी काल में अत्यधिक शराब पीकर उन्मत्त विजयचन्द ने अपनी ससुराल सायला (गुजरात) के पास एक गम्भीर मोटर दुर्घटना कर दि. जो दूसरा व्यक्ति कार के अन्दर बैठा था, कार के कांचों के बीच बुरी तरह फंस कर मर गया था. यहां हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि उसके मरने से कोई राष्ट्रीय क्षति नहीं हुई. इसके फले भी एक बार जब कुंवरसेन बस्तर के पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था और विजयचन्द्र बस्तर का सरकारी मान्यता प्राप्त महाराजा, तब भी महाराजा विजयचन्द्र ने अपने ही राज्य के एक छोटे से बच्चे की एक मोटर दुर्घटना में हत्या कर डाली थी. इस अपराध की सज़ा अदालत के उठने तक के लिए हुई थी, वह यह कि फ़ैसले की घोषणा होने के बाद उसे कुछ क्षणों के लिए उसी अदालत में खड़ा रखा गया था. सायला की इस गम्भीर दुर्घटना के बाद विजयचन्द्र अपने दोनों टखने खोकर बस्तर वापस आ गया. यह सूचना वह पूर्व में ही सरकार को दे चुका था. विजयचन्द्र की गम्भीर हालत देखकर हमने राहत का अनुभव किया था क्योंकि इसके पूर्व उसी के निर्देश पर असन्तुष्ट आदिवासी समुदाय के लोगों को खोज खोज कर उनका शिकार किया जा रहा था और पुलिस प्रशासन उन्हें मेरे महल में बचाव के लिए प्रवेश करने नहीं देता था. अब तक सरकारी अधिकारियों का एक वर्ग विजयचन्द्र के सुघड़ किन्तु अभद्र व्यवहार से उकता चुका था. होली पर्व के अवसर पर कुछ उच्च सरकारी व पुलिस अधिकारियों का दल महाराजा के प्रति अपना पारम्परिक सम्मान देने व होली मिलन के उद्देश्य से महल में गया था. विजयचन्द्र ने न केवल उन्हें गालियां दीं वरन उनके द्वारा बिना पूर्व अनुमति के महल में प्रवेश करने के लिए चुनौती भी दे दी. विजयचन्दे का व्यवहार अधिकारियों को बहुत बुरा लगा जो एक ट्रक में बैठ कर अपने महाराजा के साथ होली मिलन की रस्म पूरी करने आए थे और जिन्हें उनके ही अधीन काम करने वाले पुलिस अधिकारियों ने घन्टों तक गेट पर ही रोके रखा था. विजयचन्द्र ने अनुबन्ध पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद महल का स्वामित्व प्राप्त कर लिया था जिसमें उसके बड़े भाई को जीवनपर्यन्त रहने की सुविधा दी गई थी. महल की व्यवस्था, देखभाल और रखरखाव मेरी ज़िम्मेदारी थी. शेष सम्पत्ति कानून की नज़र में प्रवीरचन्द्र के नाम थी किन्तु सरकार विधि विभाग के उन परामर्शों पर अमल नहीं करना चाहती थी जो उसने मुझे नरसिंहगढ़ जेल में निरुद्ध करने से पहले ही विधि विभाग से प्राप्त कर लिए थे. यह समाचार मध्यप्रदेश के राजपत्र में प्रकाशित हुआ था जिसके कारण पूरा राष्ट्र संवेदनशील हो गया था और लोग यही समझने लगे थे कि कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स का प्रतिबन्ध कभी नहीं उठाया जा सकेगा.
नरसिंहगढ़ की जेल से मेरी मुक्ति के बाद मेरे द्वारा जारी प्रेस-बयान ने भारत में प्रजातन्त्र के लिए एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया था. इससे सम्बन्धित लोगों को यह जानकर आश्चर्य हुआ था कि मेरी सम्पत्ति उस समय तक भी मेरे भाई के नाम पर स्थानान्तरित नहीं की गई थी. सरकारी तन्त्र हमेशा की तरह यही कहता था कि ऐसा एक अत्यधिक धर्मप्रिय देश की वंशानुगत परम्पराओं के कारण नहीं किया जा रहा है जो कि एकमात्र पूर्व महाराजा को एकाधिकार देता है. जैसा कि इस धर्मप्रिय देश के लोगों को यह समझा पाना कठिन है कि ईश्वर समग्र ब्रह्माण्ड का एक प्रतीक चिन्ह है, केवल एक चमत्कार ही नहीं है और यह भी कि वह अपने ही विश्व का एक अंग है. यह सचमुच ही आश्चर्यजनक था कि केवल समाचार पत्रों की एक खबर पर ही इस नए महाराजा ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मेरी सम्पत्ति को विमुक्त कर दिए जाने की निन्दा कर दी जबकि इस विषय पर हुए अनुबन्ध पर स्वयं उसने अपने हस्ताक्षर किए थे तथा सरकार को इस विमुक्ति के लिए अपनी सहमति भी दी थी. यह सब दशहरा पर्व शुरू होने के कुछ ही दिन पहले जानबूझकर बस्तर में गड़बड़ी फैलाकर वातावरण दूषित बनाने की नीयत से किया गया था. साकारी तन्त्र हमेशा की तरह इस पर मूक दर्शक बना हुआ था क्योंकि कलेक्टर राव अपनी कठिनाइयों के दिन देख रहा था. मेरी सम्पत्ति के कोर्ट ऑफ़ वार्डस के विमुक्ति के कुछ ही दिन बाद कुछ आदिवासियों ने, जिन्हें गालियां देकर प्रताड़ित किया गया था और भिण्ड-मुरैना के डाकुओं से बदतर अपराधी माना गया था, सम्भवतः जगदलपुर के समीप ही एक ग्राम भेजरीपदर में दो पुलिस सिपाहियों की हत्या कर दी थी. इस पर पुलिस अन्य आदिवासियों को प्रताड़ित कर अपनी तुष्टि के लिए उनकी हत्या करने लगी.. पुलिस बदला लेने की यह कार्रवाई दस साल पहले हुई किसी हत्या की जांच के नाम पर कर रही थी. अफ़वाह यह थी कि ग्राम कारेंगपाल, जो भेजरीपदर के पास ही है, के बिस्सू माड़िया के लड़के को जांच पड़ताल के नाम पर इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मौत हो गई. एक अनय आदिवासी हड़मा की लड़की के साथ उसके पिता के सामने ही छीना झपटि और अश्लील ज़बरदस्ती की गई. जब हड़मा ने पुलिस का विरोध किया तो उसके दोनों पैर तोड़ डाले गए. यह माड़िया जिसका नाम हड़मा है, अपने नैतिक विरोध के कारण अपने दोनों पैर खो चुका है. इन सभी अमानुषिक घटनाओं के घटित होने की पुष्टि देखने और भोगने वालों ने देवी की शपथ लेकर की है. भेजरीपदर में पुलिसकर्मियों की हत्या की घटना दोपहर के आसपास हुई थी और सूर्यास्त होते न होते जगदलपुर के महल के मुख्य द्वार पर पुलिस तैनाती कर दी गई थी. ऐसा कहा जाने लगा था कि ये माड़िया मारे गए पुलिसवालों के सिर लेकर महल में प्रवेश कर चुके हैं. पुलिस उन्हें इसी बात पर गिरफ़्तार करने में सफल हो गई किन्तु बरामदगी के नाम पर उसके हाथ एक छोटा सा ताबूत हाथ लगा जिसे पंदरीपानी गांव से बरामद किया गया था. पुलिस अधीक्षक ने एक भेंटवार्ता में मुझे बताया कि मेरे द्वारा आदिवासियों को गुमराह कर भड़काया जा रहा है जिसके कारण इस तरह की घटनाएं हो रही हैं. किन्तु उसने कभी भी यह अनुभव नईं किया कि किसी प्रशासन को सम्हालकर उसकी व्यवस्था करना कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी होता है और इसके लिए निष्पक्ष और न्यायप्रिय होनी आवश्यक होता है. इसके अलावा उसकी स्वयं की गतिविधियां, जैसे महाराज के विरुद्ध सरकार को गलत सूचनाएं देना, भी इन गड़बड़ियों का मुख्य कारण थी. जगदलपुर में कांग्रेस के तथा अन्य विघ्नप्रिय लोगों का दुर्भावनापूर्ण प्रदर्शन और उनके क्रियाकलाप बस्तर की इन गतिविधियों का एक अन्य कारण थे. कांग्रेस की सरकार तथा पुलिस के अधिकारीगण समय समय पर केन्द्र को झूठी और गलत सूचनाएम भेजते रहे हैं. उन्होंने न तो कभी कल्पना ही की या कभी अनुभव ही किया कि इस राजपरिवार में विद्वेष की भावना फैलाकर इसे विघटित करने के लिए की जा रही कार्रवाईयों के एक दिन दूरगामी परिणाम उत्पन्न होंगे किन्तु इतना सब होते हुए भी ठीक इसके विपरीत नरोना को अतिरिक्त मुख्य सचिव पद के लिए आश्वस्त किया गया है. मैं समझता हूं कि राजपरिवार के किसी सदस्य को जो वांछित योग्यता रखता हो, बस्तर में पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त करना बस्तर और सरकार दोनों के लिए लाभप्रद होगा. इस से पुलिस प्रशासन और आदिवासियों के बीच सौहार्द बढ़ेगा. इसके साथ ही यदि इन आदिवासियों के युव वर्ग को अपने अपने ग्रामों में शान्ति तथा व्यवस्था बनाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाए तो भाईचारे की भावना को बढ़ावा तो मिलेगा ही साथ ही पुलिस की आतंकवादी गतिविधियां स्वयं प्रतिबन्धित हो जाएंगी. यह आदिम युवा वर्ग पुलिस के उच्चतम कमान के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अधीन हो तथा केवल उसी के प्रति उत्तरदाई हो अन्यथा पुलिस और आदिवासियों के बीच सौहार्द बन पाना असम्भव लगता है. इसके अलावा बस्तर में अय परेशानियां भी हैं. सुदूर ग्रामों में रहने वाले ये आदिवासी भारतीय संविधान का पहला पाठ भी नहीं जानते. सरकार के कर्मचारी तथा वकीलों का एक समूह इनकी अज्ञानता का गलत तरीके से भारी लाभ उठा रहा है तथा उन्हें भड़काने के लिए कई अनैतिक क्रियाकलाओं में लीन है. वर्ष १९६३ के दशहरा पर्व के समय एक युवा वकील मामा वाजपेई ने प्रेस को एक बयान दिया था कि वह चाहता था कि देवी दन्तेश्वरी को रथ पर न बिठाया जाए दशाहर के समय आदिवासी इस रथ में देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथासीन करते हैं. मामा वाजपेई के अनुसार - जो स्वयं को एक ब्राह्मण मानता है- आदिम समुदाय द्वारा इस रथ का खींचा जाना दासता का प्रतीक है. ये लोग बस्तर में अन्य विघ्नप्रिय एवं खुराफ़ाती लोगों जैसे मुरलीधर दुबे, गुरुदयाल सिंह, गंगाधर दास (रथ), राज नायडू, कुंवर बालमुकुन्द सिंह, रमेश दुबे, नरसिंहराव, आदर्शीराव आदि परदे के पीछे से इन आदिवासियों को दबाने तथा प्रताड़ित करने के लिए प्रशासन नामक इस पागल हाथी को प्रभावित करते रहते हैं. यहां इसका एक नमूना उद्धृत करना चाहूंगा -
आधिकारिक दस्तावेज़ बतलाते हैं कि आज से करीब साढ़े पांच सौ बरस पहले आज ही के दिन एक असम्भव प्रतिभाशाली व्यक्ति इस धरती पर जन्मा था. १५ अप्रैल १४५२ को इटली में कचहरी में नोटरी का काम करने वाले पिएरो दा विंची और एक खेतिहर महिला कैटरीना की अवैध सन्तान था लियोनार्दो दा विंची. लियोनार्दो चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, संगीतकार, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, इंजीनियर, आविष्कारक, चिकित्सक, भूगर्भवेत्ता, मानचित्रकार, पादपविज्ञानी और लेखक था. लियोनार्दो को कई विशेषज्ञ मानव इतिहास का महानतम चित्रकार मानते हैं और सबसे अधिक प्रतिभावान व्यक्ति भी. यह अलग बात है कि उसे सबसे अधिक उसकी पेन्टिंग मोनालिसा के लिए जाना जाता है पर तमाम क्षेत्रों में उसका काम अतुलनीय और वृहद है. देखिये उसके वैविध्यपूर्ण काम की एक बानगी:
यह है स्वतन्त्र भारत के नागरिकों को दिये जाने वाले व्यावहारिक न्याय का एक प्रकार जिसके लिए इस देश के लोगों ने अपना रक्त तथा अन्य संसाधनों को पानी की तरह बहा दिया था. पं. नेहरू ने बड़ी कृपा की और पांच सांसदों के एक आयोग की नियुक्ति बस्तर की समस्याओं की जांच व उनके समाधान के लिए कर दी. इस आयोग ने बस्तर को चुस्त व सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए बस्तर ज़िले को तीन प्रशासनिक ज़िलों में विभाजित कर देने की सिफ़ारिश की है. अक्टूबर १९६२ में नई महारानी बस्तर आ गईं. कई आदिवासियों का एक समूह महल परिसर के आसपास जमा हो गया तथा वे कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स को हटा देने की मांग करने लगे. बाद में उन्होंने महल परिसर के बाहर मैदान में डेरा डाल दिया प्रसासन से अपना शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने लगे. मध्यप्रदेश शासन ने महल के आधे भाग को अपने अधिकारियों के रिहायशी प्रयोजन के लिए अपने कब्ज़े में ले लिया था क्योंकि उन्हें डर था कि महल खाली होने पर विजयचन्द्र कहीं बेदखल न हो जाए. नरसिंहगढ़ से मेरी वापसी पर इन्होंने विजयचन्द्र को महल से हटा दिया और मुझे इसमें रहने की अनुमति दे दी गी. परिसर के मैदान में आदिवासियों ने जो डेरा डाल रखा था उन्हें पुलिसकर्मी आधी रात को जब वे सो रहे होते, चैकिंग के नाम पर जबरन बलपूर्वक जगाते थी और न केवल उनके सामान को अस्तव्यस्त कर देते थे बल्कि कभी कभी उन्हें तोड़ कर नष्ट भी कर दिया जाता. इसका एक स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि आदिवासी समुदाय पूरे पुलिस प्रशासन से नफ़रत करने लगा और उसके भीतर विद्वेष की भावना फैलने लगी. इस प्रकार की अनावश्यक और अप्रिय घटनाओं के कारण आये दिन पुलिस प्रशसन और आदिवासियों के मध्य विवाद होने लगे. आदिवासी समुदाय अब पुराने महल की वापसी की मांग अपनी पूरी क्षमता से करने लगा. यह समुदाय चाहता था कि उनकी नई महारानी पुराने महल में ही रहें क्योंकि यही महल पुरानी परम्पराओं के अनुरूप बनवाया गया था. एक शाम इन्हीं बातों को लेकर्फिर विवाद बढ़ गया. पुलिस ने जहां लाठीचार्ज कर दिया तो आदिवासियों ने तीर चलाने शुरू कर दिये. पुलिस लाठीचार्ज से जहां कई आदिवासियों को चोटें आईं वहीं आदिवासियों के तीर से एक पुलिसकर्मी घायल हो गया. इस घटना के बाद प्रशासन तन्त्र और पुलिस की यन्त्रणा से बचने के लिए आदिवासियों ने नए महल की शरण ली. इस घटना से बौखलाई पुलिस ने आंसूगैस के कई हथगोले हमारे नए महल की ओर फैंके. मुझे टेलीफ़ोन पर डराया गया कि पुलिस गोली भी चल सकती है. मैणे उन्हें बहुत स्पष्ट रूप से समझाने की कोशिश की कि किसी व्यक्ति के निजी परिसर में अन्य की दखलन्दाज़ी कानूनी विवाद का खतरा उत्पन्न कर सकती है तथा यह भी कि इस तरह की गतिविधियां उन्होंने पश्चिम के देशों से सीखी हैं. निश्चय ही भारतीय पुलिस को जनता के द्वारा किसी भी कार्य को अच्छा या बुरा कर देने की असीम क्षमता का ज्ञान नहीं है. सरकारी अधिकारी इस समय यह अनुभव नहीं कर सके कि यदि कांग्रेस पार्टी अगले चुनाव में असफल हो जाती है तब क्या आने वाला भविष्य का प्रशासन इन लोगों द्वारा वर्तमान में की जा रही गतिविधियों को सम्मान दे सकेगा? इसके कुछ समय के बाद ही दूसरे दिन पुलिस का एक महानिरीक्षक जगदलपुर से आया और मेरी सहायता से इन आदिवासियों से सम्पर्क कर पाने में सफल हो गया. समुदाय के ये लोग इस पुलिस अधिकारी के प्रति बहुत ही विनम्र तथा शालीन थे और उसके ही अधीन पुलिसकर्मियों द्वारा बरती गई बर्बरता तथा अत्याचारों की चर्चा तक उस से नहीं की. पुलिस और प्रशासन ने इस दौरान अपना शक्ति प्रदर्शन कर महल के भीतर खाने-पीने और पानी-बिजली की सप्लाई रोक कर महल के भीतर रह रहे लोगों के जीवन को पंगु बना दिया था. महल परिसर में स्थित जलाशयों को खाली करा लिया गया था तथा परिसर में बाहर से आने वाली खाद्य सामग्री और अन्य पदार्थों को प्रतिबन्धित कर दिया गया था. गोल बाज़ार का एक व्यापारी देवेन्द्र जैन जो नियमित उपभोग सामग्री की आपूर्ति करता था, के एक कर्मचारी को पुलिसकर्मी कई घन्टॊं तक प्रताड़ित करते रहे. फिर भी आदिवासियों ने जब सिद्धान्तों की कीमत पर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने से इन्कार कर दिया तो पुलिस उन्हें धोखे से गिरफ़्तार करने लगी. इस पर समाचारपत्रों ने बड़ा बावेला मचाया था कि बस्तर अब नागालैण्ड बन गया है. मैं उनसे इस सन्दर्भ में हृदय से असहमत नहीं हूं क्योंकि इसके पूर्व दन्तेवाड़ा में जो कुछ भी हुआ था इन समाचार पत्रों ने उस पर कुछ नहीं लिखा था. जबकि मानवीय पहलू से इसकी बड़ी ज़रूरत थी. सच पूछा जाए तो प्रशासन भी ऐसे समाचारों को प्रसारित करने की स्वीकृति देकर प्रसन्नता का अनुभव करता है जिसे समाचारपत्र अपने हित साधन के लिए कुछ भी लिख देते हैं. एक समाचार पत्र ब्लिट्ज़ ने एक समाचार बस्तर के सन्दर्भ में प्रकाशित किया जिसके अनुसार मेरे पिता ने नेहरु को पत्र लिख कर बताया था कि मेरी सगी बहन से मेरा अवैध सम्बन्ध था.
इसी समय लोहण्डीगुड़ा की बर्बर घटनाओं की भनक पाकर कलेक्टर राव, नरोना की अगवानी लोहण्डीगुड़ा और रायपुर के बीच में ही कर लेने के लिए जबलपुर से तत्काल दौड़ पड़ा. डॉ. कैलाशनाथ काटजू प्रान्तीय सरकार का मुख्यमन्त्री, इस घटना के बाद जबलपुर से दिल्ली के लिए उड़ चला. जबलपुर में कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने उस से आशंका व्यक्त कर दी थी कि न्यायिक जांच की यह प्रक्रिया कहीं प्रान्तीय सरकार के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह न लगा दे. इस मुख्यमन्त्री ने न तो घटनास्थल ही देखा था और न ही सहानुभूति के नाम पर किसी घायल को देखने अस्पताल या कहीं और गया था. मध्य प्रदेश विधान सभा में विपक्षी सदस्यों का दल इस पर एक कड़े विरोध की योजना बना चुका था जिसे सरकार द्वारा किसी तरह दबा दिया गया. बस्तर प्रशासन तथा सूर्यपाल तिवारी के साथ आदिम समुदाय द्वारा किये गए विरोध की न्यायिक जांच के आदेश यद्यपि मध्यप्रदेश शासन के मुख्यमन्त्री द्वारा दे दिये गए थे, किन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि बस्तर ज़िले में न्यायपालिका तथा कार्यपालिका का अलग अलग अस्तित्व नहीं रह गया है.न्यायिक जांच का यह परिणाम निकला कि बस्तर के आदिम समुदाय के विरुद्ध कोई सदोष अपराध सिद्ध नहीं हो सका. लोहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड प्रकरण पर घोषित फ़ैसले में स्पष्ट बता दिया गया था कि इन आदिवासी समुदाय के लोगों के द्वारा कोई गलती नहीं की गई थी. इसका विरोध करने के लिए मध्यप्रदेश की सरकार उच्च न्यायालय तक गई थी जबकि इसमें सफलता की आशा स्वप्न थी.
राजा नरेशचन्द्र ने इसी समय एक उद्घोषणा की थी. इस उद्घोषणा में बस्तर के आदिवासी समुदाय के प्रति भारत के प्रधानमन्त्री की सहानुभूति व्यक्त की गई थी और उन्हें आश्वस्त किया गया था कि उनकी संस्कृति और परम्पराओं पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जावेगा. किन्तु मैं समझता हूं कि यह मात्र उनका एक राजनैतिक हथकंडा है क्योंकि ठीक दशहरा पर्व के समय ही कलेक्टर राव ने इन पर भारतीय दण्ड विधान की धारा १४४ केवल उन्हें प्रताड़ित करने के लिए थोप दी जबकि मुझे नरसिंहगढ़ जेल से विमुक्त कर छुट्टी दे दी गई थी. यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय दण्डविधान की यह धारा जगदलपुर में लगातार ३३ दिनों तक प्रभावशील रही थी. दशहरा पर्व जब आरम्भ हुआ तो कलेक्टर राव ने मुझे एक पत्र भेजा था जिसमें उसने लिखा था कि यदि इसमें कोई गड़बड़ी हुई तो वह मेरी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी होगी. किन्तु उसके साथ ही दूसरी ओर मुझे गोपनीय तरीके से सलाह दी थी कि मैं दन्तेवाड़ा जाकर वहां आयोजित पूजा अर्चना में भाग लूं तथा विजयचन्द्र को जगदलपुर के रथ पर बैठने की स्वीकृति दे दूं. इसके लिए उसने मुझे पांच हज़ार रुपये देने की पेशकश की थी तथा यह भी कि यह तत्कालीन मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू की इच्छा है कि यह सब किया जाए. आदिवासी समुदाय बिल्कुल नहीं चाहता था कि विजयचन्द्र रथ पर बैठे. यह समुदाय चाहता था कि मेरी सभी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स से विमुक्त कर दी जाए किन्तु शासन ने इस पर यह बहाना कि यह विधिक प्रक्रिया तथा प्रान्तीय सरकार की प्रतिष्ठा का प्रश्न है. आदिवासी समुदाय को बहलाने के लिए एक कहानी गढ़कर इन्हें कहा गया कि जब तक मैं अपनी विवाहित पत्नी को बस्तर नहीं ले आता इस विषय पर किसी भी प्रकार की कार्रवाई करना उनके लिए असम्भव है. सच्च्चाई तो यह है कि ये सरकारी अधिकारी प्रान्तीय सरकार के निर्देशों पर इस प्रकार की मनगढ़न्त कहानियों से आदिवासी समुदाय को बहला कर फंसाए रहना चाहते थे जिसमें वे सफल नहीं हो सके. मुझे सत्ताच्युत कर मेरी बस्तर के महाराजा के रूप में सरकारी मान्यता समाप्त करने का आधार भी वही था जो मेरी गिरफ़्तारी के लिए आरोप लगाए गए थे और सलाहकार मण्डल के सामने प्रान्तीय सरकार सिद्ध करने में बुरी तरह असफल हो गई थी. किन्ति इन सब के बावजूद केन्द्र सरकार ने मुझे विमुक्त कर दिए जाने के बाद भी बस्तर के महाराजा के रूप में मेरी सरकारी मान्यता वापस देना कभी ज़रूरी नहीं समझा.
यह सचमुच ही इस देश का दुर्भाग्य है कि भारत में भ्रष्टाचार न केवल निचले स्तर पर फैला हुआ है बल्कि इसने उच्चस्तरीय लोगों को भी अपने शिकंजे में जकड़ लिया है. वर्ष १९५७ के आम चुनावों के दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस की महासमिति ने मध्यप्रदेश राज्य के आदिम जाति कल्याण मन्त्री राजा नरेशचन्द्र पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया था. नरेश चन्द्र राजा के पत्रों की फ़ोटो प्रतिलिपियों पर उनकी लिखावट एवं हस्ताक्षर उनकी विशिष्ट हस्तलिपि की पुष्टि विशेषज्ञों ने भी कर दी थी किन्तु इस सब के बावजूद भी डॉ. कैलाशनाथ काटजू, तत्कालीन मुख्यमन्त्री के द्वारा पार्टी को मजबूती देने के नाम पर उसे पुनः कैबिनेट में वापस ले लिया गया. इस तरह नरेशचन्द्र को दण्ड के स्थान पर उपहार देकर कांग्रेसी अपनी साख बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे. किन्त इसी अवधि में मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू से मुझे एक नोटिस तथा निर्देश प्राप्त हुआ था जिसमें मेरे द्वारा बस्तर में की जा रही गतिविधियों को न केवल आपत्तिजनक बतलाया गया था वरन मुझे बस्तर छोड़कर बाहर चले जाने को कहा गया था. यह पत्र ही नहीं उसके निर्देश भी न केवल असंवैधानिक थे बल्कि उसके अधिकारक्षेत्र से भी परे थे. प्रान्तीय सरकार की इस दुर्नीति की जानकारी जब आदिम समुदाय के लोगों को हुई तो वह एक भारी भीड़ के रूप में महल के चारों ओर परिसर के अन्दर ही घेरा डालकर शन्तिपूर्ण प्रदर्शन करने लगा. इस शान्तिपूर्ण घेराबन्दी ने मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू को अत्यधिक भयभीत कर दिया और अन्ततः उसे अपना यह दुर्भावनापूर्ण तथा असंवैधानिक आदेश वापस लेना पड़ा. फिर भी वह आदिम समाज की इस सक्रियता से भारी अप्रसन्न था और मेरे महाराजा के रूप में वैधानिक मान्यता को समाप्त कर दिए जाने का प्रश्न केन्द्रीय सरकार के सामने बार-बार उठाने लगा. मुझे तत्कालीन केन्द्रीय गृहमन्त्री पं. गोविन्द बल्लभ पन्त से दिल्ली में भेंट करनी थी. मध्यप्रदेश सरकार के एजेन्टों ने पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के कानों में ज़हर घोलने की पूरी कोशिश की थी. इसके विरुद्ध मैंने भी गृहमन्त्री को संतुष्ट करने का पूरा प्रयास किया था. मैंने गृहमन्त्री को कह दिया था कि मध्यप्रदेश की प्रान्तीय सरकार तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रही है और मुझेअपमानित करने के लिए कमर कस चुकी है. इसके बाद केन्द्रीय गृहमन्त्री ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इन आरोपों को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था कि भारत सरकार अथवा किसी प्रान्तीय सरकार द्वारा मुझे भारत की सीमा के अन्दर या बाहर कहीं भी आने-जाने के लिए कोई प्रतिबन्ध लगाया गया ह या मुझे मेरे किसी संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसके साथ ही गृहमन्त्री ने एक लिखित बयान जारी करने के लिए राजी कर लिया था कि बस्तर में हुई अप्रिय घटनाओं तथा अपराधों के लिए कांग्रेस पार्टी या सरकारी अधिकारी दोषी नहीं हैं. दूसरी ओर इसी अवधि में जब मैं बस्तर वापसी की यात्रा की तैयारी कर रहा था, प्रशासनिक प्रेस द्वारा जारी किए गए एक संवाद में मेरे बस्तर प्रवेश पर प्रतिबन्ध तथा गिरफ़्तार कर लेने का आदेश प्रसारित किया गया. इस दोगली नीति के संवाद की जानकारी के तुरन्त बाद मैं पं. गोविन्द बल्लभ पन्त से मिला तथा उनसे यह आदेश वापस लेने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था. जब मैं उड़ीसा राज्य के क्टक शहर से जैपुर की ओर यात्रा कर रहा था, रेडियो पर यह प्रसारित किया जाने लगा कि मेरे बस्तर प्रवेश पर प्रतिबन्धात्मक गिरफ़्तारी का आदेश वापस ले लिया गया है , लेकिन इसके बावजूद भी जब मैं बस्तर की सीमा पर पहुंचा, एक पुलिस दल ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया और मार्ग से ही नरसिंहगढ़ की जेल में ले जाया गया. यह सैकड़ों मील की एक लम्बी और उकता देने वाली कष्टप्रद यात्रा थी. साथ ही नरोना का चिरपरिचित अभिभावकीय प्यार का प्रदर्शन भी था जो उन दिनों रायपुर संभाग का कमिश्नर बन चुका था. इस दोगले अभिभावक ने पूरे मार्ग में कहीं कोई विश्राम तो क्या भोजन-पानी तक देने की ज़रूरत नहीं समझी. जगदलपुर में इस घटना पर बिन्देशदत्त मिश्र ने एक प्रस्ताव पारित कर संवेदना जतलाई थी किन्तु जगदलपुर में ही इसी विषय पर आयोजित एक सार्वजनिक सम्मेलन में वह शायद अधिक अवसरवादी हो गया था जिसे आम आदमी ने आवश्यक सम्मान नहीं दिया और मैं समझता हूं कि आदिम समुदाय में उसकी लोकप्रियता समाप्त हो जाने का यही इकलौता कारण था. इसके अलावा बिन्देशदत्त मिश्र का अनैतिक गठबन्धन रविशंकर शुक्ला के पुत्रों से था जिनकी मंशा थी बस्तर में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के आठ विधायकों के समर्थन से उसे पार्टी में एक प्रमुख व्यक्ति बना देना. पार्टी प्रमुख बनाने का यह सब्ज़बाग़ उसे पूर्व मुख्यमन्त्री रविशंकर शुक्ला का पुत्र श्यामाचरण शुक्ला कर रहा था. श्यामाचरण शुक्ला ने अपने पत्र "महाकोशल" के सभी संस्करणों में मेरी प्रत्येक गतिविधि पर आलोचना लिखकर प्रकाशित करना अपना लक्ष्य बना लिया था. इसके पीछे उसकी एक ही योजना थी - अपनी उन घृणित योजनाओं को अमल में लाना जो उसकी राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके, जो केवल मेरे पतन - राजनैतिक पतन से ही सम्भव था.
मेरी गिरफ़्तारी के समाचार मात्र से ही से आदिवासी समुदाय के लोग भारी संख्या में कलेक्टर कार्यालय के आसपास जमा हो गए. इस पर कलेक्टर मि. आर. एस. राव उन्हें बड़ी चतुराई से हटाकर हवाई अड्डे ले गया तथा शालीनता से संध्या तक मेरी वापसी की बात कह कर समझा लिया. पूरे ज़िले में सभी ओर भारी तनाव था. हज़ारों की संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जमा थे. वे कलेक्टर के वक्तव्यों और घोषणाओं से संतुष्ट नहीं हुए और सरकार की इस दोगली और अनैतिक कार्रवाही के विरुद्ध प्रदर्शन करने लगे. केन्द्रीय शासन ने प्रान्तीय शासन की सिफ़ारिश पर विजयचन्द भंजदेव को बस्तर के महाराजा के रूप मे मान्यता दे दी जिसने पूरे बस्तर के आम आदमी को भारी उद्वेलित कर के रख दिया. इसका मुख्य कारण यह था कि आदिवासी समुदाय ने शासन के इस नए प्रस्ताव को न तो अपनी सहमति दी थी न ही उसे प्रशासन द्वारा विश्वास में लिया गया था. पुलिस प्रशासन इस पर बुरी तरह बौखला गया और उसने आना दमनचक्र चलाना शुरू कर दिया. तोकापाल में परिगणित समुदाय द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में चैतू नामक आदिवासी को पुलिस द्वारा इतना मारा गया कि वह बेहोश होकर सदा के लिए दोनों कानों से बहरा हो गया.इसके अलावा पुलिस इन आदिवासियों को तोड़ने के लिए इन लोगों को बलपूर्वक लॉरियों-मोटरगाड़ियों में ठूंसकर उन्हें जमाव से दूर ले जा कर जंगलों और सड़कों पर उनके साथ मारपीट करने लगी. पुलिस तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारी वर्ग की शह पर विजयचन्द्र ने अपने ही भाई पर अनिष्ठा की स्पष्ट घोषणा कर दी. यह सब उसके उन्हीं घृणित अभियानों का एक भाग था जो वह इन कांग्रेसियों और प्रान्तीय सरकार द्वारा प्रायोजित सरकारी अधिकारियों से मिलकर अपने ही बड़े भाई के विरुद्ध चला रहा था. उसने जमा हो गई भीड़ का एक चक्कर लगाया तथा एकत्रित जनसमुदाय को भयभीत करने के लिए धमकी दे डाली कि जो कोई उसकी अधीनता को स्वीकार नहीं करेगा, उसे महाराजा नहीं मानकर उसकी योजनाओं का किसी भी तरह का विरोध करेगा, उसे गोली मार दी जाएगी. विजयचन्द्र की इस धमकी ने आदिवासियों के असन्तोष पर जले पर नमक छिड़कने का कार्य किया. कमिश्नर नरोना ने भी इन आदिवासियों को बहलाने की भरसक कोशिश की थी. वह एकत्रित जनसमुदाय को झूठे आश्वासन दिए जा रहा था. उसका कहना था कि मुझे ३१ मार्च १९६१ तक हर हाल में वापस ले आया जाएगा. यह शायद वही तारीख थी जब मुझे जबलपुर में सलाहकार बोर्ड के सामने पेश किया जाना था. सरकारी अधिकारी नए महाराजा को अपने हथकण्डों से अपना हथियार बना लेना चाहते थे. उनकी इस योजना के तहत घटना के दिन जगदलपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित ग्राम धरमपुरा में विजयचन्द को बहुत ही अधिक शराब पिलाई गई और उसे पूरी तरह अपनी योजना के क्रियान्वयन के लिए सभी प्रकार से उद्यत करा लिया गया. लोहण्डीगुड़ा ग्राम की उस दिन की घटना के बारे में जिस किसी ने भी बताया वह केवल एक ही बात कहता था कि उसने इस तरह का वीभत्स दृश्य इसके पूर्व न कभी देखा था न सुना था. पास ही के एक ग्राम नारायणपाल में सूर्यपाल तिवारी एक उत्सव का आयोजन कर रहा था जिसे वह बस्तर के महाराजा का पतन समारोह "बोहरानी" घोषित कर रहा था. केन्द्रीय सरकार मुझे जबलपुर में सलाहकार मण्डल के सामने मेरे विरुद्ध न्यायिक परिवाद परीक्षण के लिए पेश किये जाने से पूर्व मेरा बयान प्राप्त कर लेना चहती थी. केन्द्र की कांग्रेस सरकार बस्तर के इस आदिवासी समुदाय द्वारा इस सन्दर्भ में इतने प्रचण्ड विरोध की परिकल्पना भी नहीं कर सकी थी. यह इस सरकार के लिए चमत्कारिक ही था कि बस्तर के इस महाराजा को उसकी प्रजा आज भी इतना अधिक सम्मान और स्नेह देती है. उसके प्रति सम्पूर्ण समर्पण और निष्ठा रखी जाती है और वह अपनी प्रजा की सम्पूर्ण श्रद्धा का एकमेव केन्द्रबिन्दु है. जवाहरलाल नेहरू जो स्वयं एक इतिहासविद हैं अच्छी तरह समजह्ते थे कि वह भारत के प्रधानमन्त्री का सम्मान तो प्राप्त कर सकते हैं पर बस्तर के महारजा का सम्मान नहीं.
नारायणपाल ग्राम से सूर्यपाल तिवारी किसी तरह भाग जाने में सफल हो गया अन्यथा उसे फांसी पर लटका देने का मन आदिवासी समुदाय बना चुका था.
लोहण्डीगुड़ा की घटनाओं ने बस्तर के प्रशासन तन्त्र को बुरी तरह विक्षुब्ध कर दिया था और वे इस मोड़ पर जलियांवाला बाग़ की पुनरावृत्ति देखने में रुचि रखते थे. बुलाए गए इन आदिवासियों को देवी दन्तेश्वरी के फ़ोटोग्राफ़ हाथ में उठाकर प्रणाम करने को कहा गया.और उसके बाद कलेक्टर ने उनसे विजयचन्द्र को अपना नया महाराजा मानने को कहा. सरकार की नज़र में शायद वही नए महाराजा का राज्याभिषेक था जिसे वहां एकत्रित जनसमुदाय ने न केवल साफ़ साफ़ अस्वीकार कर दिया वरन इस सरकारी कार्रवाई का घोर विरोध भी किया. ऐसा कहा जाता है कि भीड़ द्वारा अस्वीकार किये जाने के तुरन्त बाद गोली चला दी गई जो निस्संदेह प्राथमिक रूप से नए महाराजा द्वारा चलाई गई थी और बाद में उसके तथा अन्य अधिकारियों के निर्देश पर. नए महाराजा द्वारा चलाई गई गोली के परिणामस्वरूप एक जोगा माड़िया की तत्काल मौके पर ही मौत हो गई और इसके तुरन्त बाद पुलिस ने भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलाना शुरू कर दिया. पुलिस प्रशासन ने यह भी अनावश्यक समझा कि कि घटना की जांच-पड़ताल की जाए कि गोली किसने और क्यों चलाई. किसकी शह पर यह घटना हुई और कौन इस घटना से कितने लोग और कौन लोग हताहत हुए. चित्रकोट जाने वालि सड़क को यातायात के लिए पूरी तरह पहले से ही प्रतिबन्धित कर दिया गया था. यातायात बन्दी का यह कार्य एक सोची समझी साज़िश के तहत किया गया था ताकि पुलिस बर्बरता का साक्ष्य तक न जुटाया जा सके. इसी काल में जबलपुर के उन्मादी साम्प्रदायिक दंगों के कारण पं. नेहरू की नींद हराम हो गई थी. फलतः बस्तर की इन दुखद घटनाओं के सम्बन्ध में बस्तर प्रशासन के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया गया. इस घटना से पहले ही बस्तर का कलेक्टर जबलपुर के सलाहकार मण्डल के समक्ष उपस्थित होकर मुझे अपराधी सिद्ध कर देने के लिए जबलपुर चला गया था. मैंने सलाहकार मण्डल के समक्ष सम्पूर्ण मौन रखने का निश्चय कर लिया था. न्यायिक कार्रवाईयां चलने लगीं. कलेक्टर राव सभी प्रयासों के बावजूद यह समझ गया था कि उस स्थान पर और अधिक समय तक बने रहना निरर्थक है. उसे दूसरे दिन अनुपस्थित पाकर मैंने राहत की सांस ली. एक मि. लाबो सरकारी वकील को कलेक्टर राव के स्थान पर मण्डल के सामने सरकार का पक्ष रखने की स्वीकृति दी गई थी जबकि मुझे किसी वकील की सेवाएं लेने की अनुमति तक नहीं दी गई थी. जबलपुर उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों का वह सलाहकार मण्डल बस्तर तथा उसके महाराजा के सन्दर्भ में सरकार को सलाह देने के उद्देश्य से प्रान्तीय सरकार द्वारा गठित किया गया था.
... कुंवरसेन ने मुझे कांकेर के पूर्व महाराजा के आपराधिक क्रियाकलापों के सन्दर्भ में एक लघुपुस्तिका प्रसारित करने के लिए बाध्य कर दिया जिसका शीर्षक था - ज़ोर, ज़ुल्म और ज़बरदस्ती. दूसरे शब्दों में यह लघुपुस्तिका कांग्रेसी सरकार की आड़ में महाराजा कांकेर द्वारा भानुप्रतापपुर में किए गए आपराधिक कार्यकलापों का एक कच्चा चिठ्ठा लेखा-जोखा था किन्तु इसका एकदम प्रतिकूल परिणाम निकला. कुंवरसेन और देवेन्द्रनाथ को मज़बूत प्रान्तीय सरकार द्वारा स्थानान्तरित करवा दिया गया. सूर्यपाल तिवारी ने मेरे ही परिसर में आयोजित एक कांग्रेसी बैठक में मुझे ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया. मेरी निजी सम्पत्ति भी तब तक कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स के अधीन थि यद्यपि इससे विमुक्त कर दिए जाने के लिए प्रान्तीय सरकार द्वारा कई घोषणाएं की जा चुकी थीं. बस्तर के निवासियों के विकास और पुनरुत्थान के लिए मेरे द्वारा लाए गए प्रस्तावों को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया गया और कांग्रेस समिति द्वारा हमेशा इनकी खिल्ली उड़ाई . जब ये पेरिस्थ्तियां असहनीय हो गईं तब मैंने इसके विरोध में अपना अध्यक्ष पद त्याग दिया. मैं अनुभव करता था कि मैं अपने स्वयं के आर्थिक संसाधनों की मदद से बस्तर के आदिम समुदाय तथा अन्य निवासियों का अधिक हित कर सकता था बनिस्बत लोकधन का अपव्यय कर लोगों को धोखा देने के जैसा कि कांग्रेस के लोग किया करते थे. मेरे पद त्याग कर देने के कारण फिर से चुनाव कराना पड़ा और मेरे द्वारा रिक्त पद के लिए एक बिन्देशदत्त प्रत्याशी बना. इसी काल में नारायणपुर क्षेत्र के एक कांग्रेसी विधायक की मृत्यु हो जाने के कारण उस क्षेत्र के लिए एक उपचुनाव भी कराना पड़ा था. इस क्षेत्र के लोगों ने जो सदा से ही कांग्रेस से घृणा करते आए हैं इस बार भी वैसा ही किया. इस कांग्रेसी प्रशासन द्वारा उस क्षेत्र में जो अपराध किए गए थे उसका उल्लेख करना भी भयानक है. उन्हें सुनने मात्र से मनुष्य को रोमांच हो आता है. इस क्षेत्र में घटी इन घटनाओं का संकलन मेरी एक छोटी सी पुस्तिका "अन्तागढ़ का काला अपराध" में किया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि इस उपचुनाव में कांग्रेस पार्टी भारी मतों से पराजित हुई.इसी समय के आसपास तत्कालीन कलेक्टर मि. पवार ने प्रान्तीय सरकार को एक पत्र में इस क्षेत्र में मेरी उपस्थिति से जहां कांग्रेस के मतदाताओं के टूट जाने की आशंका का खतरा बताया था वहीं राजकीय गुप्तचर तन्त्र द्वारा इस छोटी सी पुस्तिका को दांत चबाने की टिप्पणी के साथ प्रान्तीय सरकार को भेजा गया. इस प्रकार का पत्र तथा अन्य विशेषकर इस प्रकार के ओकतान्त्रिक चुनावों के मामले में किसी सरकारी अधिकारी का हस्तक्षेप निस्संदेह वांछनीय नहीं है. किन्तु यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई थी कि कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों ने प्रशासनिक तन्त्र को को इस बुरी तरह अपने प्रभाव में जकड़ रखा था और बस्तर का आदिम समुदाय जो प्रायः निरक्षर है, को भी साहित्यिक सत्य प्रभाइत कर सकता है.
इस चुनाव का परिणाम घोषित होने के पहले ही मुझे प्रान्तीय सरकार के एक राजनैतिक सचिव का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें आदिवासी सेवादल की अप्रजातान्त्रिक गतिविधियों के बाबत आपत्ति की गई थी. किन्तु मेरी राय में इस दल का कार्य पूर्ती तरह संवैधानिक तथा साधारण ही था. इसके बाद चुनावों में अपनी करारी हार के कारण प्रान्तीय सरकार चौकन्नी हो गई थी और बस्तर की सभी गतिविधियों को गम्भीरता से लेने लगी थी. वर्ष १९६० के आसपास प्रान्तीय सकार के राजनैतिक विभाग ने बस्तर के लोगों की सभी गतिविधियों को हतोत्त कर देने का एकातरफ़ा खेल शुरू कर दिया. ग्राम बस्तर के एक गन्दे तालाब की सफ़ाई अभियान पर इस आदिवासी सेवादल के स्वयंसेवकों पर जिसमें परिगणित समुदाय के भी लोग थे, सूर्यपाल तिवारी ने एक आपराधिक मामला उनके विरुद्ध चलाया जिसमें सरकार को भी एक पक्षकार बनाया गया था. यह मामला केवल तालाबों के आसपास के निवासियों के निस्तार विशेषकर सार्वजनिक निस्तार में बाधा पहुंचाने की बदनीयती से चलाया गया था. सरकारी तन्त्र द्वारा आदिम समुदाय के इस तरह के सार्वजनिक कार्यों को दण्डकारण्य परियोजना के लिए एकतरफ़ा आरक्षित कर आदिवासियों के अनन्त काल से चले आ रहे अधिकारों पर हस्तक्षेप किया गया था. यही नहीं कांग्रेस के ये ही बड़े पदाधिकारी आरक्षित वनों की लकड़ियों को काटने के लिए अनपढ़ आदिवासियों को उकसाते थे और दूसरे ही क्षण पीठ पीछे पुलिस में उनकी रिपोर्ट लिखवा देते थे. सूर्यपाल तिवारी ने एक सरकारी डाकबंगले का ताला तोड दिया था. इस बलात किए गए अपराध के लिए कलेक्टर ने उसके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४०६ के तहत कार्रवाई करनी चाही पर अपने विशिष्ट सहयोगियों की मदद से सूर्यपाल तिवारी बच निकलने में कामयाब रहा. सूर्यपाल ने एक बार खाम सिरिसगुड़ा में एक शिक्षक की पत्नी के साथ बलात्कार करने की भी कोशिश की थी जो समय पर एक चतुर व्यक्ति के हस्तक्षेप के कारण टल गई थी.
यान गारबारेक नॉर्वेजियाई मूल के संगीतकार हैं. जैज़ और शास्त्रीय संगीत में सतत नए प्रयोगों में लीन रहने वाले गारबारेक ४ मार्च १९४७ को जन्मे थे. यान के पिता पोलैण्ड के एक युद्धबन्दी थे और माता नॉर्वेजियाई किसान की पुत्री. गारबारेक ने स्कैन्डीनेवियाई लोकसंगीत में अपने संगीत के उत्स तलाशे और सक्सोफ़ोन को अपना प्रमुख वाद्य यन्त्र चुना.
यान गारबारेक ने १९९२ में उस्ताद बड़े फ़तेह अली ख़ां साहब के साथ एक अल्बम तैयार किया था Ragas and Sagas. आज प्रस्तुत है उसी अल्बम से एक कम्पोज़ीशन:
सूर्यपाल ने हमें कुंओं तथा तालाबों के निर्माण कार्य से वंचित कर देने के सभी प्रयास किये जो आम आदमी के लिए खोदे जा रहे थे. एक संस्था आदिवासी सेवा दल के नाम से सार्वजनिक उपयोग के लिए कुंओं और तालाबों के निर्माण के लिए गट्ठित की गई थी किन्तु प्रशासन ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया और न दी इसकी तरफ़ कोई ध्यान दिया. सूर्यपाल को लोकधन को हड़प लेने में अधिक रुचि रखता था - उनके सिर सिर से टोपियां उठाकर उन्हें बेइज़्ज़त करने लगा. इस ज़िले की पानी की कमी ने भोपाल सरकार को झकझोर कर रख दिया था जो इस ज़िले से लगभग एक करोड़ रुपये राजस्व के रूप में वसूल लेती थी. जगदलपुर शहरी क्षेत्र में नलजल प्रदाय के लिए पानी की एक टंकी के निर्माण कार्य हेतु सरकार ने आठ लाख रुपये स्वीकृत किये थे. यहां गर्मी के दिनों में पानी के लिए लोगों को भारी संघर्ष करना पड़ता था किन्तु मि. पवार का - जो उस काल में बस्तर ज़िले का कलेक्टर था - का मत था कि राज्य सरकार ने इस मद में इतनी बड़ी रकम देकर बड़ी गलती की थी. उसके विचार से भाखड़ा बांध से लोहन्डीगुड़ा का प्रतावित बांध अधिक बड़ा होगा. इसी दौरान १९५७ में होने वाले आम चुनावों के कारण बस्तर की राजनीति में आमूल परिवर्तन होने लगा था. स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पार्टी बस्तर में गहरी रुचि रखती थी. कुंवर सेन चाहता था कि बस्तर में कांग्रेस पार्टी महाराजा के साथ चुनावी गठबंधन कर ले. प्रान्तीय सरकार आदिवासियों को उनके महाराजा से अलग कर देने की कोशिश में बुरी तरह असफल हो गई थी जो प्रान्तीय सरकार का भारतीय राजनेताओं की नज़ार में अच्छा प्रदर्शन कतई नहीं था. इसके साथ ही विकसित होती आदिम तथा परिगणित समुदाय की एकता तथा सामूहिक संकल्पित कार्यशैली अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी. मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकार की राजनीति को उस समय एक और करारी चोट पहुंची जब नई राजधानी भोपाल का शिलान्यास करने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई. यद्यपि यह मृत्यु १९५७ के आम चुनावों में कांग्रेस का टिकट न मिलने के सदमे से हुई थी. साथ ही कांग्रेस के लोग अच्छे से जानते थे कि आने वाले आम चुनावों में सूरपाल के लिए समर्थक विधायक चुने जाने के लिए बस्तर में ज़रुरू मत जुटाना कठिन होगा. इस पर वे पूरी तरह आश्वस्त थे. इसके लिए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का एक पर्यवेक्षक दिल्ली से कांकेर के महाराजा के साथ मेरे पास जगदलपुर भेजा गया था. कांकेर का महाराजा भविष्य के लिए बस्तर को अपना राजनैतिक साम्राज्य बना लेने का सपना देखने लगा था. केवल अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सूर्यपाल के स्थान पर मुझे कांग्रेस का टिकट दे दिया गया. वे चाहते थे कि मैं उनकी पार्टी की सदस्यता अब उनके दल में सम्मिलित हो जाऊं. पार्टी के इस निर्णय के साथ ही साथ उन्होंने वे सारे आरोप, जिसके तहत मुझे पागल घोषित करने के लिए आरोपित किया गया था, एकाएक बिना मेर द्वारा किसी तरह की याचना के समाप्त कर दिये गए. पुलिस प्रशासन भि इससे भारी प्रसन्न था क्योंकि कांग्रेस पार्टी को इसमें भारी सफलता मिल गई थी किन्तु जल्दी ही पुलिस प्रशासन और कांग्रेस पार्टी के लोग आपस में सिर टकराने लगे. इस सिरफुटव्वल का एकमात्र लक्ष्य था सत्ता पर नियन्त्रण पा लेना. इसके बाद कुंवरसेन ने अपना लक्ष्य कांग्रेस पार्टी को बना लिया. प्रान्तीय सरकार को भय लगने लगा था कि बस्तर क्षेत्र में उनकी पकड़ न केवल कमज़ोर पड़ती जा रही है, बल्कि उनकी प्रभुसत्ता भी समाप्त हो जाने के कगार पर है. सूर्यपाल के सभी आपराधिक कारनामे जिसमें उसके द्वारा उसके अपने गृहग्राम में एक सरकारी अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार का मामला भी सम्मिलित था, कुंवरसेन द्वारा संकल्पित कर मेरे समक्ष उसकी पुष्टि में मेरे हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत कर दिया गया. यह इसलिए किया गया क्योंकि मुझे उस समय बस्तर की कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था. यह पद मुझे मेरे निर्वाचन के कारण प्राप्त हुआ था. इस प्रकार की कार्रवाईयां इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि बस्तर के सरकारी अधिकारी वर्ग अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए किसी भी निम्नस्तरीय कार्रवाई से नहीं चूकते थे. इस निम्न स्तरीय सरकार की पुलिस कार्रवाईयों के परिणामस्वरूप ही सूर्यपाल तिवारी के भाई को कुंवरसेन ने एक्दिन बखरसिंह के साथ गिरफ़्तार कर लिया, जो इन सरकारी अधिकारियों के लिए भारी प्रसन्नता का कारण था.
इसके बाद कुंवरसेन कांकेर के महाराजा के साथ भिड़ गया. यह भी उसकी कांग्रेसी घृणा की मुहिम का ही एक अंग था. रुग्ण महाराजा की एक मातृका बहन उसकी देखभाल तथा सेवा सुश्रूषा किया करती थी व एक कांग्रेसी राजघराने के एक प्रतिष्ठित परिवार से थी और इस महाराजा की कृपापात्र थी. कुंवरसेन तथा सरकारी अधिकारीगण एक निश्चित अवधि के अन्तराल में इनके सहभोजों में सम्मिलित हुआ करते थे. यह परिवार अपने निहित स्वार्थों तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कांग्रेस की महासमिति तथा नेहरू की इष्ट देव की तरह पूजा किया करता था. (जारी)