Wednesday, December 31, 2008

नया साल बचे झूठ की कहानी से

मैं हूं सदी 21 का गुजरता हुआ आठवां बरस
मैं गवाह हूं हिंदोस्तां की किस्मत का
रंग गिरगिट का दिखाती हुई सियासत का
उजले परदों के तले स्याह सब इरादों का

मैंने देखा है दहशत का खौफनाक मंजर
पानी की तरह बहता खून सड़कों पर
जिस्म को चिथड़ा बनाते, बारूदी दिमाग
दिल को चीरती चीखें और भड़कती आग
और जो जान दे बचा गए कई जानें
उनकी जांबाजी और हौसले के अफसाने

मैंने देखा है हिमालय को जार-जार रोते
उसके आंसू से लबालब हुईं नदियों का कहर
और शमशान में बदली हुई गौतम की जमीं
जश्न दिल्ली में मना देख के पटना की गमी
पी गए सब,उठी इमदाद की फिर जो भी लहर
लाल बत्ती में नजर आए सब घड़ियाल, मगर

मैंने देखे हैं पसीने में तर ब तर बच्चे
गमे रोजी पे न्योछावर जवानी की कसक
तेज रफ्तारी का दम निकालती हुई मंदी
सांय-सांय करती,लेबर चौराहे की सड़क

और देखा कामयाबी का नई राहें
चांद सीने से लगाने को मचलती बाहें
और वो सूरज भी देखा, जो उगा खेल के मैदानों से
एक मेडल ने कैसे अरब चेहरों को लौटा दी चमक
दांव कुश्ती का और मुक्के का हुनर ऐसा खिला
हर तरफ फैल गई गांव की मिट्टी की महक
और मंडी में सजे देव गेंद-बल्ले के
खेल के हुस्न पे भारी पड़ी सिक्कों की खनक

तमाम किस्सों को सीने में दबाए जाता हूं
गया वक्त हूं तो फिर से कहां आऊंगा,
अलविदा कहता हूं पर भूल नहीं पाऊंगा

अरे, उठो..ये उदासी कैसी
नजूमी देखो फिर बिल से निकल आए हैं
बमों पे बैठे हैं, मुस्तकबिल हरा बताए हैं
कोई टी.वी. पे,कोई छा गया अखबारों में
चमक चोले में,और हीरा जड़े हारों में
बहलाने वाले वही किस्से फिर दोहराए हैं
हंसो-हंसो कि लतीफा बड़ा सुनाए हैं
फिर वही नाजिर हैं,वही मंजर फिर
सुने मैंने भी थे, जब आया था, उठाए सिर

पर ऐसा भी क्या कि जश्न की बात न हो
जर्द पन्नों में गुलाबों से मुलाकात न हो
माना हर तरफ पसरा है ये अंधेरा घना
पर हमेशा के लिए कौन इस दुनिया में बना
जो भी आया है जहां में, वो जाएगा जरूर
तख्त ओ ताज गए,ये भी खतम होगा हुजूर

इसलिए उठो, सुनो दस्तक, खोलो किवाड़
दरीचों से फूट रहा है नई किरणों का जाल
इसे बचाओ बुरी नजरों से, लालच से, बेइमानी से
नया साल बचे,सब झूठ की कहानी से
इसका स्वागत करो... स्वागत करो...स्वागत करो...

(जब कोई खबरनवीस साल का लेखा-जोखा करता है तो कई बार कलम यूं ही बहक जाती है)

नया साल यानी नई कसमें खाने का बखत

नए साल की क़समें

क़सम खाता हूं शराब और सिगरेट पीना नहीं छोड़ूंगा
क़सम खाता हूं, जिन से नफ़रत करता हूं उन्हें नहला दूंगा नीच शब्दों से
क़सम खाता हूं, सुन्दर लड़कियों को ताका करूंगा
क़सम खाता हूं हंसने का जब भी उचित मौका होगा, खूब खुले मुंह से हंसूंगा
सूर्यास्त को देखा करूंगा खोया खोया
फ़सादियों की भीड़ को देखूंगा नफ़रत से
क़सम खाता हूं दिल को हिला देने वाली कहानियों पर रोते हुए भी सन्देह करूंगा
दुनिया औए देश के बारे में दिमागी बहस नहीं करूंगा
बुरी कविताएं लिखूंगा और अच्छी भी
क़सम खाता हूं समाचार संवाददाताओं को नहीं बताऊंगा अपने विचार
क़सम खाता हूं दूसरा टीवी नहीं खरीदूंगा
क़सम खाता हूं अंतरिक्ष विमान चढ़ने की इच्छा नहीं करूंगा
क़सम खाता हूं कसम तोड़ने का अफ़सोस नहीं करूंगा

इस की तस्दीक में हम सब दस्तख़त करते हैं.

(जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की यह अति प्रसिद्ध कविता 2008 में संवाद प्रकाशन से छ्पी उन के अनुवादों की पुस्तक 'एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष' का हिस्सा है.)

Tuesday, December 30, 2008

वह मुक्ति नहीं, इच्छा लेकर आती है


यहां आप अमीर ओर को पहले भी पढ़ चुके हैं. आज पेश है उनकी एक और कविता:

कुछ लोग कहा करते हैं

कुछ लोग कहा करते हैं ज़िन्दगी चलती जाती है विकल्प के रूबरू भी
कुछ कहते हैं: फ़तह; कुछ खींच देते हैं बराबर का चिन्ह

जीवन और उसकी अनुपस्थिति के दरम्यान; और कुछ ये कहते हैं कि जीवन
हमें उनकी सेवा करने को दिया गया था जिनका जीवन

जीवन नहीं है. मैं कहता हूं: आप.
और इसे बहुत आसानी से समझाया जा सकता है: एक बार फिर ढंकती है रात

जिस सब को देखा जा सकता है. दीये जला दिए गए हैं घर में. और कोई निगाह नहीं है रोशनी में
सिवा उसके जो आईने से आती है, सिवा उसके जो देखती है

मुझे उसे देखते हुए; और वह वह मुक्ति नहीं, इच्छा लेकर आती है, मौत नहीं
जीवन लाती है. और मैं हटाता हूं अपनी निगाह गर्म और ठण्डे से - रात ढंक लेती है हर चीज़ को

और मुझे इच्छा होती है उसकी जो मुझे छू कर देखता है
मुझे कुछ भी याद नहीं रहता. बस इतना ही.

बोरिस पास्‍तरनाक - व्‍यक्तित्‍व

बोरिस पास्तरनाक




कलम में एक जानवर की तरह, मैं कट गया हूं
अपने दोस्तों से, आज़ादी से, सूर्य से
लेकिन शिकारी हैं कि उनकी पकड़ मजबूत होती चली जा रही है।
मेरे पास कोई जगह नहीं है दौड़ने की
घना जंगल और ताल का किनारा
एक कटे हुए पेड़ का तना
न आगे कोई रास्ता है और न पीछे ही
सब कुछ मुझ तक ही सिमट कर रह गया है।
क्या मैं कोई गुंडा हूं या हत्यारा हूं

या कौन सा अपराध किया है मैंने
मैं निष्कासित हूं? मैंने पूरी दुनिया को रुलाया है
अपनी धरती के सौन्दर्य पर
इसके बावजूद, एक कदम मेरी कब्र से
मेरा मानना है कि क्रूरता, अंधियारे की ताकत
रौशनी की ताकत के आगे
टिक नहीं पायेगी।

कातिल घेरा कसते जा रहे हैं
एक गलत शिकार पर निगाहें जमाये
मेरी दायीं तरफ कोई नहीं है
न कोई विश्वसनीय और न ही सच्चा

और अपने गले में इस तरह के फंदे के साथ
मैं चाहूंगा मात्र एक पल के लिए
मेरे आंसू पोंछ दिये जायें
मेरी दायीं तरफ खड़े किसी शख्स के द्वारा

ये कविता है प्रख्यात कवि, उपन्यासकार और चिंतक बोरिस पास्तरनाक की जो उसने १९५९ में नोबेल पुरस्कार लेते समय रची थी।
कितनी तड़प, कितनी पीड़ा और कितनी बेचैनी है इन शब्दों में कि मन पढ़ कर ही बेचैन हो उठता है, और कितनी बड़ी त्रासदी है कि पास्तरनाक का पूरा जीवन ही इसी कविता के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाता है।
यह कविता नहीं, उनका पूरा जीवन है जो उन्होंने भोगा और अपने आपको पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त करने के लिए वे हमेशा छटपटाते रहे।
अपने समकालीन दूसरे बुद्धिजीवी रचनाकारों की ही तरह पास्तरनाक हमेशा डर और असुरक्षा में सांस लेते रहे। सोवियत रूस की क्रांति के बाद के कवि के रूप में उन्हें भी शासन तंत्र के आदेशों का पालन करने और अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन कर अपनी बात कहने की आजादी के बीच के पतले धागे पर हमेशा चलना पड़ा। उन्होंने उन स्थितियों में भी हर संभव कोशिश की कि कला को जीवन से जोड़ कर सामने रखें जब कि उस वक्त का तकाजा यह था कि सारी कलाएं क्रांति की सेवा के लिए ही हैं। अपनी सारी रचनाएं, कविताएं, संगीत लहरियां और लेखों के सामने आने में हर बार इस बात का डर लगा रहता था कि कहीं ये सब उनके लिए जेल के दरवाजे न खोल दें।
पास्तरनाक की बदकिस्मती कि वे ऐसे युग में और माहौल पर जीने को मजबूर हुए। उन्होंने कभी भी दुनिया को राजनीति या समाजवाद के चश्मे से देखा। उनके लिए मनुष्य और उसका जीवन कहीं आधक गहरी मानसिक संवेदनाओं, विश्वास और प्यार तथा भाग्य के जरिये संचालित था। उनका साहित्य कई बार कठिन लगता है लेकिन उसके पीछे जीवन के जो अर्थ हैं या मृत्यु का जो भय है, वे ही उत्तरदायी है। वे समाजवाद को तब तक ही महत्त्व देते हैं जब तक वह मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने में सहायक होता है। उस वक्त का एक प्रसिद्ध वाक्य है कि आपकी दिलचस्पी बेशक युद्ध में न हो, युद्ध की आप में दिलचस्पी है।
पास्तरनाक अपने समय के रचनाकार नहीं थे और इसकी सजा उन्हें भोगनी पड़ी। वे इतने सौभाग्यशाली नहीं थे कि उस समय रूस में चल रही उथल पुथल के प्रति तटस्थ रह पाते। इसी कारण से बरसों तक उनका साहित्य रूस में प्रकाशित ही न हो सकता। क्योंकि अधिकारियों की निगाह में उनके साहित्य में सामाजिक मुद्दों को छूआ ही नहीं गया था। वे जीवनयापन के लिए गेटे, शेक्सपीयर, और सोवियत रूस के जार्जियन काल के कवियों के अनुवाद करते रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने अपनी विश्व प्रसिद्ध कृति डॉक्टर जिवागो की रचना शुरू की जिसे उन्होंने १९५६ में पूरा कर लिया था। इसे रूस से बाहर ले जा कर प्रकाशित किया गया। १९५८ में उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया जो रूस के लिए खासा परेशानी वाला मामला था। यही कारण रहा कि यह किताब रूस में १९८८ में ही प्रकाशित हो सकी।
१८९० में जन्मे बोरिस पास्तरनाक की मृत्यु १९६० में हुई।
इतिहास की इससे बड़ी घटना क्या होगी कि जिस बोल्शेविक शासन तंत्र ने पास्तरनाक को आजीवन सताया और उसकी रचनाओं को सामने न लाने के लिए संभव कोशिश की, उसका आज कोई नाम लेवा भी नहीं है और पास्तरनाक का साहित्य आज भी पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है और उसकी कब्र पर दुनिया से लोग फूल चढ़ाने आते हैं।

चला गया चटख रंगों का वह चितेरा


समकालीन भारतीय चित्रकला के अनूठे चित्रकार मनजीत बावा नहीं रहे। वे लंबे समय से कोमा में थे और कला जगत को आशा थी कि वे ठीक होकर फिर से उसी उर्जा के साथ काम कर सकेंगे लेकिन इस खबर से कला जगत का चटख रंगों का यह चितेरा दुःख और उदासी का धूसर रंग छोड़ गया लेकिन अपने कैनवास पर वह खास शैली में बने आकारों और मनोहारी रंगों में हमेशा सांस लेता रहेगा। उनके कैनवासों से पूरा भारतीय कला जगत दिपदिपाता रहेगा।
ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले (बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कभी पेंटिंग भी किया करते थे) ने कहा कि वे घूमंतू चित्रकार थे और आधुनिक चित्रकला में उनका एक देशी अंदाज था। वे चैनदारी से अपना काम करते थे। उनकी चित्रकारी का किसी भी तरह की होड़ और बाजार से कोई रिश्ता नहीं था। कला उनके लिए जीवन और शुद्ध अभिव्यक्ति का मामला था। यही कारण है कि वे इतना अमूल्य चित्र - संसार रच पाए।
इंदौर के वरिष्ठ चित्रकार श्रेणिक जैन ने कहा कि मनजीत बावा अपने ढंग के मौलिक चित्रकार थे। उन्होंने मिनिएचर किए और उनकी कला लोक कला से खासी प्रभावित रही है। उनका जाना सचमुच कला जगत की अपूरणीय क्षति है। जबकि वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल का मानना था कि उनका काम इतना सुंदर होता था कि देश के बाहर भी खूब पसंद किया जाता था। यह बहुत ही सराहनीय है कि उन्होंने पशु-पक्षियों के मूक संसार को अपने कैनवास पर खूबसूरती से जीवंत किया। वे उन चित्रकारों में से थे जो सतत काम कर रहे थे लेकिन पिछले तीन सालों से उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा था। मूर्तिकार-चित्रकार संतोष जड़िया ने कहा कि पेंटिंग में उनका भारतीयता का अंदाज सबसे जुदा था। उन्होंने किसी की नकल नहीं की और अपनी मौलिक शैली ईजाद की। उन्होंने सुर्रियलिज्म को ठेठ भारतीय रंग देकर पुनर्परिभाषित करने का सुंदर प्रयास किया था। चित्रकार प्रभु जोशी ने कहा कि मनजीत बावा ने आकृतिमूलकता के साथ मिथकीय पात्रों को रेखांकन के स्तर पर सरलीकृत किया । वे मूलतः आध्यात्मिक थे और अपने तथा कला के बारे में मितभाषी भी। हालांकि अपनी कलाकृतियों को लेकर वे विवाद में भी रहे लेकिन अविचलित बने रहे। वे कला समीक्षकों, कलादीर्घाअों तथा कलाकारों के लिए भी सर्वाधिक उदार थे।
उन्होंने खूब ड्राइंग की। सालों तक की। उनके इसी ड्राइंग प्रेम से प्रभावित रहे हैं चित्रकार बीआर बोदड़े। वे कहते हैं उन्होंने कला में अपनी एक अलग राह और पहचान बनाई तथा शेरों को लेकर खूब काम किया। जबिक चित्रकार हरेंद्र शाह का मानना था कि उनके फिगरेटिव काम बहुत यूनिक हैं और उसमें भारतीयता झलकती है। उनके रंग आनंद देते हैं। अमूर्त चित्रकार अखिलेश का कहना था कि वे समकालीन चित्रकला में नरेटिव फिगरेटिव कला के बरक्स दूसरी दिशा की फिगरेटिव पेंटिंग के कलाकार थे। वे अपने रंगों के लिए प्रख्यात थे। रंगों का उनका बरताब उन्हें दूसरे चित्रकारों से अलग करता है। अब हम उनके रंगों से वंचित रहेंगे। सोचा था कि ठीक होकर वे फिर से रच सकेंगे लेकिन अब यह संभव न हो सकेगा। कवि नवल शुक्ल का मानना है कि वे देश के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में एक थे और उनके चित्रों में भारतीयता की लालित्यपूर्ण झलक मिलती है। जबिक चित्रकाकर अक्षय आमेरिया का कहना था कि उनमें गहरी आध्यात्मिकता थी । युवा चित्रकार खांडेराव पंवार कहते हैं कि उनके चटख रंग गहरा प्रभाव छोड़ते हैं और उनके आकार लुभाते हैं।
वे हमेशा अपने चटख रंगों और अद्वितीय आकारों के लिए याद किए जाते रहेंगे।

कितना जानते हैं आप मंजीत बावा को

रंग के चितेरे और सूफियाना अंदाज के मालिक मंजीत बावा को जानना आसान नहीं है। उनकी पेंटिंग और सोच जिन्दगी के एक अलग ही मायने हैं। वह करीब तीन सालों तक कोमा में रहे। जहाँ तक मुझे याद है उनकी तबियत ख़राब होने से महज एक हफ्ते पहले उनसे अच्छी-खासी बातचीत हुई थी कई मुद्दों पर। जिन्दगी के फलसफे से लेकर भविष्य के योजनाएं बातचीत के मुद्दों में शामिल था। मेरी बातचीत का एक मुद्दा सेल्फ इम्प्रूवमेंट भी था जिस पर एक लेख चार जनवरी, २००६ को दैनिक जागरण के जोश में छपा था। शीर्षक था 'गढें कुछ नया। ' मैंने अपने ब्लाग पर भी इसी साल जनवरी में एक लेख भी लिखा था "अब तो जग जाओ बावा "। पर अपने धुन के पक्के न तो वह जगे और न ही किसी की बात ही मानी । आज उनको याद करते हुए क्यों न उस बातचीत को पढ़ें और गुने।... विनीत उत्पल
'गढें कुछ नया'

Monday, December 29, 2008

कला में एक ख़ास क़िस्म की ताज़गी और नयापन होना चाहिये



जाने माने चित्रकार मनजीत सिंह बावा की आज सुबह लम्बी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई. तीन साल से कोमा में चल रहे थे बावा.

१९४१ में पंजाब में जन्मे बावा ने कॉलेज ऑफ़ आर्ट से डिग्री हासिल की थी. लन्दन स्कूल ऑफ़ प्रिन्टिंग, एसेक्स में उन्होंने स्क्रीन प्रिन्टिंग का डिप्लोमा किया और १९६७ से १९७१ तक लन्दन में स्क्रीन प्रिन्टर का काम किया.

बावा कहा करते थे: "आपकी कला में एक ख़ास क़िस्म की ताज़गी और नयापन होना चाहिये, वरना कला से जुड़े रहने का कोई मतलब नहीं होता. अलग होने का मतलब हुआ कि आप कुछ ऐसा करते हैं जो आपने पहले कभी नहीं किया होता."

रंगों की चमक और चटख से प्यार करने वाले इस कलाकार के जाने से भारतीय कला-संसार की बड़ी हानि हुई है. कबाड़ख़ाना उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देता है.





(स्व. मनजीत बावा का फ़ोटो 'ट्रिब्यून' से साभार)

ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना







कल, या परसों था वो ..... सिद्धेश्वर भाई की पोस्ट पढ़-सुन कर मगन हो गया था.... तब से कुछ ग़ालिबमय भी हूँ.


"हमारे ज़ेह्न में इस फिक्र का है नाम विसाल
कि गर न हो तो कहाँ जाएँ, हो तो क्योंकर हो"



मुझे लिखना नहीं आता इस लिए सीधे मतलब की बात करुँ ...... पेश है एक ग़ज़ल ग़ालिब की ... आवाज़ रफ़ी की .... पेश कर रहे हैं कैफ़ी आज़मी .... पसंद आए तो बताइयेगा ....... एक और ग़ज़ल की गुंजाइश है ?






ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना
बन गया रकीब आख़िर, था जो राज़दाँ अपना

मय वो क्यों बहुत पीते, बज़्म-ए-गै़र में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर, उन को इम्तिहाँ अपना

मंज़र इक बलंदी पर, और हम बना सकते
अर्श से इधर होता, काश कि मकाँ अपना

दे वो जिस क़दर ज़िल्लत, हम हँसी में टालेंगे
बार-ए-आशना निकला, उनका पासबाँ अपना

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, जाऊँ उनको दिखलाऊँ
उंगलियाँ फ़िगार अपनी, खा़मः खूँचकाँ अपना

घिसते घिसते मिट जाता, आपने अबस बदला
नंग-ए-सिज्दः से मेरे, संग-ए-आस्ताँ अपना

ता करे न गम्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त कि शिक़ायत में, हम ने हमज़बाँ अपना

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ग़ालिब, दुश्मन आसमाँ अपना

Saturday, December 27, 2008

न: दे नामे को इतना तूल 'ग़ालिब' मुख़्तसर लिख दे


मैं चमन में क्या क्या गोया दबिस्ताँ खुल गया,
बुलबुलें सुनकर मेरे नाले ग़ज़लख़्वाँ हो गईं.

आज मिर्ज़ा असदु्ल्लाह खाँ 'ग़ालिब' की जयंती (२७ दिसंबर १७९६ - १५ फरवरी १८६९) है. इस महान साहित्यकार के बारे में क्या लिखा जाय ! इतना लिखा जा चुका है उसकी खोज -खबर लेने में सारा जीवन निकल जाएगा और पता चलेगा कि यह तो समुद्र की एक बूँद भर थी. यह भी मालूम कि आने वाले वक्तों में उन पर इतना कुछ और लिखा जाएगा कि आज कल्पना करना भी दुश्वार लगता है. हो सकता कि मेरी यह बात कुछ सहॄदयों को अतिशयोक्ति लगे लेकिन साहब मुझे ऐसा लगता है तो मैं क्या करूँ ! आप चाहें तो इसे भावुकता भी कह सकते हैं - ऐसी भावुकता : जिसका कि आजकल भाव गिरा हुआ है फिर भी वह बाजार में है और उसके भी खरीदार अलबत्ता कम नहीं हैं , खैर...

'ग़ालिब' बुरा न: मान जो वाइज बुरा कहें
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

आज क्या किया? वही रोज का किस्सा : 'होता है शबो -रोज तमाशा मेरे आगे' . दिन भर इस तमाशे में पार्ट अदा कर अपने घोंसले में पहुँचकर दोपहर में आया अंग्रेजी का अखबार देखा , टीवी पर थोड़ी देर समाचार और चाय के बाद ग़ालिब के साथ थोड़ी सैर.. ..'दीवाने ग़ालिब' (सं० साक़िब सिद्दीक़ी) , 'उर्दू साहित्य कोश' (कमल नसीम) और 'उर्दू भाषा और साहित्य' ( रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी) जैसी किताबों को उलट - पलटा , कुछ ग़ज़लें सुनीं... मन हुआ कि ग़ालिब पर कुछ लिखा जाय किन्तु ...लिखना हो नहीं पा रहा है -

'ग़ालिब' कर हुजूर में तू बार - बार अर्ज़,
जाहिर तेरा हाल सब उन पर कहे बगैर.

आइए सुनते हैं ग़ालिब की इस कालजयी ग़जल के कुछ शे'र -

आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक.
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब ,
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने जिगर होने तक ।

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक।

ग़मे-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज ,
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक ।

१- गुलजार की प्रस्तुति टीवी धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में नसीरुद्दीन शाह और जगजीत सिंह -




२- सोहराब मोदी की प्रस्तुति फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में सुरैया -

Thursday, December 25, 2008

बड़ा दिन' पर बाँसुरी

(यह पोस्ट भाई अशोक पांडे से क्षमायाचना के साथ कि उनकी पोस्ट को 'ओवरलैप' करने की धॄष्टता कर रहा हूँ. क्या करूँ दोस्त ! ब्लागरी आपकी ही सिखाई हुई है , सो अब .. आप ही समझो!)

इंदौर नगर के वासी प्रिय भाई सलिल दाते हैं.
बाँसुरी बजाते नहीं , वह तो बाँसुरी में गाते हैं.
प्रेमी हैं मदन मोहन के और संगीत के मर्मज्ञ.
ईश्वर करे जारी रहे उनका विलक्षण वेणु-यज्ञ.
यह सुरमई सौगात भाई संजय पटेल ने भिजवाई है.
'कबाड़खाना' के प्रेमियों को 'बड़ा दिन' की बधाई है।




आइए आज सुनते हैं उर्दू कहानी को नई ऊँचाइयाँ बख्शने वाले मशहूर फिल्मकार राजेन्द्र सिंह बेदी की एक अद्भुत सिनेमाई कृति १९७० में रिलीज 'दस्तक' में संकलित मजरूह सुल्तानपुरी की यह कालजयी कविता - 'माई री...' जिसे अपनी बाँसुरी पर गा रहे हैं सलिल दाते.




माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की

ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
तन - मन भिगो दे आके ऐसी घटा कोई छाए ना
मोहे बहा ले जाए ऐसी लहर कोई आए ना
ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
पड़ी नदिया के किनारे मैं प्यासी....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की

पी की डगर में बैठे मैला हुआ रे मोरा आँचरा
मुखड़ा है फीका-फीका नैनों में सोहे नाहीं काजरा
कोई जो देखे मैया प्रीत का वासे कहूं माजरा
पी की डगर में बैठा मैला हुआ रे मोरा आँचरा
लट में पड़ी कैसी बिरहा की माटी.....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की

आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
बैंयाँ की छैयाँ आके मिलते नहीं कभी साँवरे
दुख ये मिलन का लेकर काह करूँ कहाँ जाउँ रे
आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
पाकर भी नहीं उनको मैं पाती....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की


(पुनश्च : 'दस्तक' फ़िल्म जब टीवी के परदे पर पहली बार देखी थी तो यह सिर्फ देखना भर नहीं था।उस अनुभव और इस फ़िल्म पर एक अलग पोस्ट जल्द ही... वैसे बेहद खुशी होगी कि कोई और सम्मानित 'कबाड़ी' यह काम कर देवे , अगर ठीक समझे तो !)

द लास्ट टैम्प्टेशन ऑफ़ क्राइस्ट: नुसरत



एक आदिम कराह! दर्द की! यह ईसा को सूली पर चढ़ाए जाते समय के दृश्य का संगीत है फ़िल्म 'द लास्ट टैम्प्टेशन ऑफ़ क्राइस्ट' से:



संगीत दिया है पीटर गाब्रीएल ने. बाकी मुख्य संगतकार ये रहे: पीटर गाब्रीएल (कई साज़), यूसू एन दूर और बाबा माल (नुसरत के अलावा वोकल्स), डेविड रोड्स (गिटार), वाचे हाउसपियन, अन्त्रानिक अस्कारियन (आर्मेनियाई डूडुक), शंकर (डबल वायलिन), कुडसी एरग्यूनर (ने फ़्लूट), रोबिन कैन्टर (ओबो), मुस्तफ़ा अब्दल अज़ीज़ और म्यूज़ीशियन्स ऑफ़ नाइल (आरगुल), जॉन हैसेल (ट्रम्पेट), नेथन ईस्ट (बास), मासाम्बा ड्लोप (टॉकिंग ड्रम), मैनी एलियास (ऑक्टोबैन्स, सुर्डू) वगैरह

Tuesday, December 23, 2008

लम्हे... नीलेन्द्र सिंह कुशवाह की कविता

मेरा खास दोस्त है नीलेन्द्र. मेरे भागलपुर से दिल्ली आने और जामिया मिल्लिआ इस्लामिया मे एडमिशन के दौरान शायद पहली दोस्ती उसी से हुई. रायपुर से दिल्ली आना और फ़िर आजकल आस्ट्रेलिया पहुंचना हम दोस्तों के लिये कम रोमांचकारी नही है. कभी झगड़ा तो कभी मारपीट और फ़िर एक दूसरे के बिना घंटे भर भी बिता पाना दोनों के लिये मुश्किल रहा है.जब हम लोगों ने जामिया से जनसंचार का कोर्स पास कर "सेंटर फ़ार पीस एंड कान्फ़लिक्ट" में दखिला लिया तो उसकी लिये अंग्रेजी सिरदर्द था. कहता जिस दिन यह कोर्स खत्म होगा उस दिन मैन दूल्हा बनूंगा और मेरे सिर पर सेहरा होगा. सभी दोस्तों के हर दुख-सुख मे साथ रहने वाला नीलेन्द्र आजकल आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन शहर में रह रहा है. इतनी दूर रहते हुए भी जिस दिन उससे बात नही होती वह दिन अधूरा सा लगता है. "संडे पोस्ट" दिल्ली में काम करने वाला एक पत्रकार नीलेन्द्र की काबिलियत कई रूपों में है, लेकिन पहचान पाना कठिन है दूसरों के लिये.आज उसने एक कविता भेजी है. क्यों ना आज उसकी कविता और मन की आवाज से रूबरु हों. ...विनीत उत्पल

लम्हे...

कुछ मुँह चिढ़ाते
तो कुछ कुछ की
याद दिलाते लम्हे....

कुछ हाथ से छूट कर
छन से गिरे हुए,
मानो किसी ग़रीब
बीमार के हाथ से
दवा की शीशी फूटी हो | लम्हे...

कुछ ऐसे
मानो दूर कहीं
बादल के कुछ टुकड़े
ठठाकर हँस पड़े हों
और उनकी अट्टहास से
फूटते पानी ने
मुझे पूरा भिगो दिया हो |

भीगने का ये सिलसिला
चलता रहेगा...
यूँ ही अनवरत...
लेकिन हर बार
कुछ अलग
तरीके से भिगोएगी
ये बारिश...

हर बार
एक नया ही होगा
तरीका...
हर बार
एक नया ही होगा
बहाना...

ऐसे ही भीगते - भीगते
एक दिन
मै घुल जाऊँगा
मिट्टी का बना हूँ ना...
मिट्टी में ही मिल जाऊँगा |

Monday, December 22, 2008

Sunday, December 21, 2008

मीडिया का जूता और राष्ट्रवाद

क्या मीडिया उस तरह से राष्ट्रवादी हो सकता है, या उसे होना चाहिए, जैसा चालू अर्थों में किसी राष्ट्रवादी से उम्मीद की जाती है। या फिर मीडियाकर्मी के लिए पेशे के प्रति प्रतिबद्धता राष्ट्रवाद से बड़ा मूल्य है। इधर भारत के बाहर दो ऐसी घटनाएं घटी हैं जिनकी वजह से ऐसे सवाल भारत के मीडियाकर्मियों को मथ रहे हैं।

पहली घटना पड़ोसी पाकिस्तान में घटी। जिओ टी.वी. ने स्टिंग आपरेशन के जरिये खुलासा किया कि मुंबई हमलों का गुनहगार अजमल कसाब दरअसल पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में दीपालपुर कस्बे के पास फरीदकोट गांव का रहने वाला है। दूसरी घटना इराक की है, जहां एक टी.वी.पत्रकार ने दुनिया के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले आदमी, अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूते फेंके। पाकिस्तान में कथित राष्ट्रीय हित पर वहीं के चैनल ने चोट पहुंचाई तो इराक में राष्ट्रवाद का जुनून पेशे की मर्यादा पर भारी पड़ा। जाहिर है, दोनों के सही- गलत होने पर बहस हो रही है।

पहले बात जिओ टी.वी की। पाकिस्तान और भारत के बीच जारी शब्दयुद्ध के बीच इस चैनल ने सच्चाई जानने के लिए फरीदकोट गांव पहुंचकर स्टिंग आपरेशन किया। पता चला कि अजमल कसाब यहीं का रहने वाला है। कुछ समय पहले वो गांव आया भी था और बच्चों को कराटे के करतब दिखाए थे। साथ ही, अपनी मां से जेहाद पर जाने के लिए आशीर्वाद मांगा था। उसका पिता अमीर कसाब पकौड़े बेचता है और जब से अजमल कसाब के जिंदा पकड़े जाने की खबर आई है, ये गांव पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की निगरानी में है। लोग पत्रकारों से बात न कर सकें और पत्रकार वहां तस्वीरें न खींच सकें, इसकी पूरी कोशिश की जा रही है।

ये सच सामने आते ही पाकिस्तान सरकार का वो दावा कमजोर पड़ गया कि मुंबई हमलों में पाकिस्तानियों का हाथ नहीं है और जिंदा पकड़े गए आतंकवादी के पाकिस्तानी होने का कोई सुबूत नहीं है। इसमें शक नहीं कि जिओ टी.वी. ने वही किया जो मीडिया का फर्ज है, यानी सच्चाई सामने लाना। लेकिन जरा गौर करें, उसके इस कदम से पाकिस्तान की कितनी किरकिरी हुई। दुनिया के सामने उसका दावा कमजोर पड़ गया। तो क्या जिओ ने गलत किया?

राष्ट्रवाद की चालू परिभाषा के लिहाज से देखा जाए तो वाकई जिओ ने अपने राष्ट्र को शर्मिंदा किया। पाकिस्तानी राष्ट्रवादियों की नजर में जिओ का ये काम देशद्रोह से कम नहीं। जाहिर है, उस पर हमले हो रहे हैं। जिओ के मशहूर पत्रकार हामिद मीर ने खुद की जान का खतरा बताया है। यही नहीं, लाहौर हाईकोर्ट ने जिओ के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाने की याचिका स्वीकार कर ली है।

भारत में जरूर जिओ की पीठ ठोंकी जा रही है। अखबार और चैनलों में इस बात का ढिंढोरा है कि पाकिस्तानी मीडिया ने ही पाकिस्तान के झूठ की पोल खोल दी। ये अलग बात है कि भारत में कोई जिओ जैसी हरकत करे, तो उसे भी वैसे ही देशद्रोही करार दिया जाएगा जैसे पाकिस्तान में जिओ को कहा जा रहा है। इस खतरे के आगे सभी दंडवत हैं।

लेकिन एक दूसरा पहलू भी है। जिओ ने सच उजागर करके एक तरह से वहां की सरकार को मजबूर किया कि वो आतंकवाद के मुद्दे पर कठोर रुख अपनाए। अगर पाकिस्तानी सरकार वाकई ऐसा करती है तो उसे दुनिया भर से सहायता और समर्थन मिलना तय है। तभी शायद वो आईएसआई के कचक्रों का मुकाबला कर पाएगी और सत्ता पर झपट्टा मारने को तैयार खड़ी सेना को कदम पीछे करने को मजबूर कर सकेगी। इस तरह जिओ ने पाकिस्तान में लड़खड़ाते लोकतंत्र को सहारा दिया है।
बतौर राष्ट्र पाकिस्तान को मजबूत होने का मौका दिया है। ऐसा करना जिओ के लिए जरूरी भी है। उसे अच्छी तरह पता है कि मीडिया के लिए लोकतंत्र के क्या मायने हैं। सैनिक शासन होता तो जिओ फरीदकोट में स्टिंग आपरेशन कतई न कर पाता। करता भी तो प्रसारण की नौबत न आती। यानी राष्ट्रहित वही नहीं है जो किसी देश की मौजूदा सरकार के हक में हो, राष्ट्रहित वो है जो उन मूल्यों के हक में हो, जिस पर किसी देश की बुनियाद पड़ी है। इस तरह देखा जाए तो सच्चाई के प्रति मीडिया का आग्रह कभी भी राष्ट्रहित के विरुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि झूठ की बुनियाद पर सरकारें खड़ी रह सकती हैं, देश नहीं।
पर अफसोस की बात ये है कि दुनिया भर में राष्ट्रहित के नाम पर मीडिया को अपने तरीके से चलाने की कोशिश हो रही है। सरकारों को 'एम्बेडेड जर्नलिज्म' ही चाहिए। यानी ऐसी बंधुआ पत्रकारिता, जो किसी सरकार के फौरी हित के हिसाब से ही खबरें लिखें। इराक युद्ध के दौरान यही हुआ। पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से देखने-सुनने की मनाही थी। अमेरिकी सेना के साथ नत्थी पत्रकारों ने सेना से मिली सूचनाओं को ही परोसा। और जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई में सदियां खप जाएंगी। कल्पना करिए कि अमेरिकी पत्रकारों ने स्वतंत्र ढंग से जांचकर ये बताया होता कि इराक में जैविक हथियार नहीं हैं तो क्या होता। जनदबाव के चलते जार्ज बुश शायद ही इराक को तबाह करने की हिमाकत करते और बगदाद के विदाई समारोह में उनपर जूते न चलते।

पर ये नहीं भूलना चाहिए कि ये जूते एक पत्रकार ने चलाए जो उनकी प्रेस कांफ्रेंस कवर करने गया था। मुंतजिर अल जैदी ने जूते फेंककर पेशे की मर्यादा और भरोसे के साथ खिलवाड़ किया है। ये अलग बात है कि उसके साहस से अमेरिकी साम्राज्यवाद से संघर्ष करने वालों में खुशी की लहर है औऱ मुंतजर उनका नया नायक है। इसमें भी शक नहीं कि मेसोपोटामिया के जरिये दुनिया को सभ्यता का शुरुआती पाठ पढ़ाने वाले इराक को बुश ने इस कदर बर्बाद किया कि पुरानी हैसियत पाना अब सपना ही है। लोगों में स्वाभाविक ही इसके खिलाफ भारी गुस्सा और नफरत है। लेकिन असल राष्ट्रवादी पत्रकार इस गुस्से को आवाज देगा, जुल्म के खिलाफ लोगों का आह्वान करेगा, उम्मीद करेगा कि निहत्थे लोग किसी दिन जूता लेकर उठ खड़े होंगे। बुश पर जूता फेंकने के लिए पत्रकार होना जरूरी नहीं, लेकिन मुंतजिर उस राष्ट्रवाद का शिकार हो गया जो अंधा बना देता है। उसने जूता उठाकर एक आसान रास्ता चुना।

कौन तय करता है कि मरेगा कौन और किस क़ीमत पर

आज सुबह अभिनव कुमार ने फ़ोन पर वरिष्ठ आई पी एस अधिकारी श्री तजेन्द्र लूथरा की लिखी एक कविता पढ़कर सुनाई. अक्सर हाशिये पर डाल दिए जाने वाले दृष्टिकोण को सामने लाने वाली यह कविता बम्बई में हुए हालिया बम धमाकों की पृष्ठभूमि में बहुत ध्यान से पढ़े जाने की दरकार रखती है. अभिनव कुमार मेरे अच्छे मित्रों में हैं और उनका बड़प्पन इस बात में भी है कि जब भी कोई अच्छी पढ़ने-गुनने लायक चीज़ उनकी निगाह में आती है तो उसे शेयर करने में ज़रा भी देर नहीं करते. हाल ही में उनका एक विचारोत्तेजक लेख आउटलुक में छपा है. समय मिले तो निगाह डालियेगा.



मैं आभारी हूं आपका

मैं आभारी हूं आपका
कि आपने मुझे शहीद मानकर
एक सुन्दर पत्थर पर
मेरा बारीक नाम मेरे साथियों के साथ
लिखवा दिया है.

पर मुझे सैल्यूट कर
नम आंखों से मेरा बारीक धुंधला नाम पढ़कर
मुझे शर्मिन्दा न करें
उसे साफ़ पढ़ने की कोशिश
आपकी आंखों में कई परेशान सवाल खड़े कर देगी
और उनके जवाबों में
पसीना, अचकचाहट, लरज़ती ज़बान.
और झांकती बगलों के सिवा कुछ नहीं
आप नाहक परेशान परेशान न हो.

मेरे सवाल
मेरा मकान, मेरी पेंशन
और मेरे बच्चों की पढ़ाई नहीं हैं
मैं इनके जवाब तो वैसे भी उम्र भर नहीं ढूंढ पाया था
पर इनसे बेख़ौफ़ आंखें मिलाकर
मैंने जी हल्का कर लिया था.
मेरे पास कुछ और सवाल हैं
जो मेरे सहमे हुए बच्चों से भी
ज़्यादा मासूम हैं
कि जैसे कौन तय करता है कि मरेगा कौन
और किस क़ीमत पर
कौन तय करता है कि बचेगा कौन
और उसकी बोली कैसे लगती है
किसके हाथ में है कि
बचे हुओं को रोज़ तिल तिल मारा जाए
कौन है जो किसी का मरना और किसी का मारना
बस दूरबीन लगाकर देखता रहता है
किसने दिया उसे ये किरदार
और देकर चुप क्यूं नहीं
जीते जी मैं इनको भाता क्यूं नहीं
मैं सचमुच अपना भाग्य विधाता क्यूं नहीं.

आपके जुलूस आपके उबाल
आपकी मोमबत्ती और आपका लिखवाया
मेरा मेरा बारीक नाम
मैं शतशत आभारी हूं आपका
पर मुझे चाहिए ये सब जवाब.

और भी हैं लेकिन
मैं ज़्यादा सवाल पूछकर
आपको शर्मिन्दा नहीं करना चाहता.

(तजेन्द्र लूथरा की फ़ोटो ट्रिब्यून से साभार)

वीरेन दा को समर्पित विजयशंकर चतुर्वेदी की एक कविता

मृत्यु को देखना जरूरी है
वह तुम्हें जोतों में दिखाई देगी
जूतों में दिखाई देगी
जोतों का अब जूतों में दिखाई देना जरूरी है.

-विजयशंकर चतुर्वेदी

Saturday, December 20, 2008

सुरीली क्लेओपेट्रा स्ट्राटन


क्लेओपेट्रा स्ट्राटन एक चमत्कार का नाम है। ६-७ साल का यह चमत्कार प्रसिद्ध गायक पावेल स्ट्राटन की बेटी का नाम है। क्लेओपेट्रा को ज़रूर ही सुर अपने गायक पिता से जीन्स में मिले होंगे जो बगैर किसी ट्रेनिंग के उसने यकायक एक दिन गाना शुरु कर दिया।
इस छोटी सी गायिका के नाम गायकी के कई रिकार्ड हैं; वह भी तब जबकि वह अभी जुम्मा जुम्मा ६ साल की हुई है।
उन रिकार्डों में से कुछ की बानगी देखिये:
१ सबसे छोटी उम्र की प्रोफ़ेशनल गायिका।
२ सबसे कम उम्र गायिका जिसके नाम किसी देश में नंबर एक पर कोई गीत रहा है।
३ दो घंटे तक लाइव गाने वाली सबसे छोटी गायिका।
४ कम उम्र की कलाकारों में सबसे ज़्यादा कमाने वाली गायिका।
उसका सबसे मशहूर गाना "गिता" मैनें पहले यहां लगाया था। एक दूसरा गीत "Oare cat" भी उतना ही कर्णप्रिय है। इस गीत का अंग्रेजी तर्जुमा नीचे दिया है और नीचे ही गीत का लिंक भी है।
"how much"
I wonder how much is gonna tell me papa
to go to bed when night falls
mom isn't glad when she sees that
I put my dolls to sleep instead of me.

It comes through one ear and passes
through the other
when she tells me what I am supposed to do
and what I am not
she tells me to wash my hands after I play
with the dog


maybe I'll get luckier and I'll do
what I am not supposed to do
after all daddy isn't beating me
he just talks to me
I know that you don't like this but
remember you were like me
and I don't think you were different.

I wonder how much is gonna tell me papa..."


प्रगति और परम्परा



(फ़ोटो के लिए आशुतोष उपाध्याय का आभार)

Friday, December 19, 2008

रोटीपानी की फ़िक्र से परे सोनापानी में









दिल्ली में नौकरी आपसे बहुत कुछ छीन लेती है। मेरे साथ यही हो रहा है। सृजन स्रोत सूखने लगे हैं। परिवार को समय नहीं दे पा रहा। सुबह ग्यारह से रात नौ-दस तक की नौकरी - फिर समय ही कितना बचता है! सोचिए प्रिंट में ये हाल है तो चैनलों में क्या हो रहा होगा!

बहरहाल, दीवाली के मौके पर जब बेटी को स्कूल से छुट्टी मिली, तो पत्नी ने भी हफ्ते भर की छुट्टी ले ली। मुझे यह दिल्ली की दहशत से निकलकर पहाड़ों की खुली हवा में जाने का अच्छा मौका लगा, सो मैंने भी तीन दिन की छुट्टी ले ली। आनन-फानन हलद्वानी में अशोक पांडे को फोन लगाया गया। उसने सुझाव दिया कि हम एक रात आशीष की खोज 'सोनापानी' में जरूर बिताएं। मैंने दिल्ली से रेल के टिकट करवा लिए।

शशि (पत्नी) और हितू (बेटी) दोनों खुश थे। मगर हमारी खुशी पर जल्दी ही रिजर्वेशन का ग्रहण लगा। पत्रकार होने के नाते बने संपर्क भी काम नहीं आए और पता चला कि रेल के छूटने से कुछ घंटे पहले तैयार होने वाले अंतिम चार्ट में भी हमारा नाम वेटिंग लिस्ट में ही था। एक अंतिम प्रयास के रूप में अशोक ने किसी भाटिया का नाम लेते हुए बताया कि वह हमें सीट दिलवा देगा, मगर हमें उसकी फीस देनी होगी। मगर भाटिया साहब ने भी हाथ खड़े कर लिए - साहब, अगर सिर्फ आज जुम्मा न होता - भविष्य में याद रखिएगा कि जुम्मे के दिन रेल से यात्रा न करें।

घर में सारा सामान बेतरह बिखरा हुआ था। मैंने जैसे ही भाटिया की हिदायत सार्वजनिक की, शशि और हितू दोनों के चेहरे मुरझा गए। शशि मेरी लेटलतीफी को कोसने से खुद को नहीं रोक सकी - कब से कह रही थी, टिकट बुक करवा लो, मगर आपका कोई प्लान टाइम पर बनता ही नहीं। अब खुद चुप कराओ अपनी बेटी को।

बेटी बिस्तर पर औंधे मुंह गिरी सुबक रही थी। उसने अपनी मां की तरह मुझ पर शब्दों का प्रहार नहीं किया, मगर उसके आंसू शब्दों से कहीं ज्यादा मारक थे। स्थिति को संभालने के लिए मैंने फैसला किया कि रेल से न सही, हम अपनी गाड़ी से जाएंगे। करीब डेढ़ हजार किलोमीटर ड्राइविंग करना आसान न था। खासकर यह देखते हुए कि गई रात से मेरी पीठ की मांसपेशी खिंची हुई थी, लेकिन मैं पत्नी और बेटी को खुश करने के लिए पीठ का दर्द सहन कर सकता था।

अगले दिन सुबह ग्यारह बजते-बजते हम नैशनल हाइवे -24 पर थे। अशोक को मैंने फोन कर दिया था। अंदाजा यह था कि शाम 7 बजे तक हमें हलद्वानी में होंगे। ऐसा ही होता बशर्ते कि हमें बिलासपुर से पहले करीब 20-25 किलोमीटर की खस्ता रोड नहीं मिलती। लंबी यात्राओं में ऐसी ही सडक़ें अस्थिपंजर ढीले करने का काम करती है। अशोक के घर पहुंचने तक रात का 9 बज गया। हमारे लिए खुशी की वजह यह थी कि इस यात्रा के दौरान बेटी हितू की तबीयत खराब नहीं हुई। दो दिन पहले ही डॉक्टर ने उसे हल्का वायरल होने की बात की थी। उसे गले में बुखार वाला दर्द था और रुक-रुक कर खांसी उठ रही थी। वह दवा भी ले रही थी।

अशोक ने हमें (मेरी पत्नी को ज्यादा) इंप्रेस करने का पूरा इंतजाम किया हुआ था। उसके घर पहुंच जरा सुस्ताए भी नहीं कि उसने झटपट खाना लगवा दिया। चूंकि सारा खाना उसने अपने कुशल हाथों से बनाया था, वह शायद नहीं चाहता रहा हो कि वह ठंडा होकर अपना स्वाद खोए। उसकी हरकतों को देख मुझे अफसोस हुआ कि मैं उसके लिए स्कॉच की बोतल क्यों लाया। सोचा यह था कि साथ बैठकर इधर-उधर की पेटभरकर बातें करते हुए यह बोतल आधी तो हो ही जाएगी, पर यहां इस कम्बख्त ने सीधे ही खाना लगा दिया था। उस लजीज खाने की खुशबू ने यात्रा की थकान को और बढ़ा दिया। मैं किसी तरह उस बोतल से एक पैग बनाकर हलक पाया। वैसे मुझे यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि खाने की महक ने मेरी पीने की इच्छा को मार डाला था। वाकई, क्या खाना था भई, वाह! मुरगी (मुर्गा नहीं, वह इतना लजीज नहीं हो सकता) के टुकड़ों को भूनकर बनाया गया शोरबा, गोभी और पनीर की सब्जी, पीली दाल और रायता। खाने के बाद शशि ने शिकायत की कि वह ज्यादा खा गई। खाने के बाद हम जल्दी ही सो गए। हां, मैं हितू को रात का आसमान दिखाना न भूला, जो दिल्ली की बनिस्बत ज्यादा साफ और उजला था हालांकि उतना भी नहीं, जितना हम सोनापानी में देखने वाले थे।

अगले दिन सुबह हमने अपने इस चार दिन तीन रातों के ट्रिप का खाका तैयार किया। पहले सोनापानी फिर रामनगर में वाइल्ड लाइफ सफारी और अगले दिन वापस दिल्ली रवानगी।

हम सुबह बिना ज्यादा समय गंवाए सोनापानी की ओर चल पड़े। अशोक ने हमें उसकी लोकेशन के बारीक ब्यौरे लिखवा दिए थे। हलद्वानी से पहले हम भवाली पहुंचे। दिन में पहाड़ की ठंड में ड्राइविंग का मजा ही कुछ और था। अशोक से मैंने एक स्वेटर मार ली थी। हम जितना ऊपर जा रहे थे, ठंड बढ़ती जा रही थी। रास्ते में मैंने शशि की पहाड़ों की खास चटनी के साथ गर्म गर्म पकौड़े खाने की इच्छा पूरी की। गई रात अशोक ने जिस तरह जल्दी खाना खिलाकर मुझे छुट्टी मनाने के मेरे अपने ढंग से महरूम किया था, उसकी कसर पूरी करने के लिए मैंने भवाली में अंग्रेजी शराब की दुकान से बीयर का एक कैन ले लिया। रामगढ़ पहुंचते पहुंचते हम जल्दी सोनापानी पहुंचने को बेसब्र होने लगे थे। उसके बारे में हमें बातें ही ऐसी बताई गई थीं। हम खुश इस बात पर भी थे कि अभी तक बेटी को पहाड़ी सफर से कोई दिक्कत नहीं हुई थी। वह यह सोचकर भी बहुत उत्तेजित थी कि उसे सोनापानी में खेलने को एक दोस्त (आशीष की बेटी) और बहुत सारे झूले मिलेंगे।

सोनापानी पहुंचने के लिए आपको करीब एक किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। यह दूरी आपकी उत्सुकता को और बढ़ाने का काम करती है क्योंकि आशीथ का रेजॉर्ट पहाड़ की ओट में इस तरह छिपा हुआ है कि अंतिम कुछ कदमों की दूरी रहने पर ही इसकी पहली झलक दिखाई पड़ती है। हमें भी अंतत: उसकी झलक दिखाई दी। झलक ऐसी कि हम तीनों के मुंह से ओह वाउ! जैसे शब्द निकले। अगले कुछ क्षणों तक उस जगह की खूबसूरती को आत्मसात करते हुए हम ऐसी ही अभिव्यक्ति के पयार्यवाची दुहराते रहे। बांज के पेड़ों की ठंडी छायाओं से भरे जंगल से घिरी वह जगह वाकई अनायास ही आपके सामने खुलती है और आप फलों और फूलों से लदे पेड़ों से पटी उस जगह से सामने दूर हिमालय की बर्फीली चोटियां देखकर कुछ देर तक स्तब्ध रह जाते हैं - जैसे अचानक किसी ने आपके सम्मुख बंद स्वर्ग का द्वार खोल दिया हो। यह स्वर्ग फिल्मों में दिखने वाले स्वर्ग जैसा न था जहां स्वर्णजडि़त लिबास में सजे संवरे देवताओं के सामने धवल वस्त्रों में अप्सराएं नृत्य करती दिखें, बल्कि यहां सिर्फ और सिर्फ प्रकृति थी, नजर के छोर तक पसरी हुई। प्राकृतिक सुंदरता के साथ वहां माहौल में एक गहरा अपनापन भी लगा, जो अजनबियों को अजनबी नहीं रहने देता। आशीष अपनी पत्नी दीपा और बेटी वन्या के साथ हमारा ही इंतजार कर रहा था। मगर उन्हें कुछ ही देर में हलद्वानी की ओर निकल जाना था। उन्होंने हमारे लिए दिन का भोजन तैयार करवाया हुआ था। हितू वन्या के साथ खेलने लगी। साथ खेलने के लिए एक साथी पाकर वह वहां झूले न होने की निराशा से निकल आई। मैं इस बीच हाथ मुंह धोने का बहाना बना हमारे लिए तय की गई कॉटेज में चला गया और सामने हिमाच्छादित पहाड़ों को देखते हुए जल्दी जल्दी बीयर की बड़ी बड़ी घूंट लेने लगा। घूंट लगाते हुए मैं इस एहसास से भरा हुआ था कि मैं अपने जीवन के कुछ बेहतरीन पलों को जी रहा था।

आशीष ने खाने के लिए एक अलग डाइनिंग हॉल बनाया हुआ था। खाना जिन डोंगों में रखा था, वे भी खास बनावट के और कुछ प्राचीन दिखते थे। यह बंदोबस्त मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि यहां आने वाले लोग एक साथ खाना खाते हुए एकदूसरे से जान पहचान बढ़ा सकते थे। प्रकृति के ऐसे एकांत में आकर, जहां साल के आठ महीने ठंड रहती है, दूसरे लोगों से पहचान बढ़ाना जीवन की ऊष्मा पाने जैसा ही था। हमारे अलावा वहां दो दंपत्ति वहां थे। एक भारतीय युवती के साथ रह रहा अमेरिकी नागरिक था, जो वहां नजदीक ही स्थित एक एनजीओ से जुड़ा था और साल में छह महीने यहीं गुजारता था और दूसरा नोएडा से आया एक यंग कपल, करीब तीन वर्ष के बातूनी बेटे के साथ।

लंच के बाद आशीष को निकलना था। मुझे यह जानकर बहुत हैरानी हुई कि वन्या पैदल ही वहां से रोज करीब दो किलोमीटर दूर स्कूल जाती थी। हितू उससे उम्र में बड़ी थी मगर यहां आते हुए उसे एक किलोमीटर का पैदल रास्ता भी बहुत कठिन जान पड़ा था। तब मुझे एक पीड़ा भरा एहसास हुआ कि हितू पहाड़ी पिता की पुत्री जरूर थी मगर खुद वह शहरी हो गई थी और ज्यादा पैदल न चलना शहरी प्राणियों की आदत हो जाती है। तब एक पल को मैंने सोचा कि परिवेश और जरूरतों की हमारी शारीरिक सामथ्र्य के निर्माण में कितनी अहम भूमिका होती है।

लंच के बाद हम लोग अपने कॉटेज में आकर सो गए। शशि और हितू यात्रा की थकान से और मैं थकान और हेवर्ड 10000 के खुमार के सम्मिलित प्रभाव से।

जाड़ों में पहाड़ों में रात जल्दी हो जाती है। उठने तक अंधेरा घिर आया था। रजाई से बाहर निकलते ही हमें एहसास हुआ कि बाहर ठंड कितनी ज्यादा है। अंधेरे में हमें लगा कि हम पूरी दुनिया से कट गए हैं। सिर्फ बीच बीच में बजने वाले हमारे मोबाइल थे जो हमें बाहरी दुनिया से जुड़े होने का यकीन दिला रहे थे। इस बीच अशोक हमसे लगातार संपर्क में था। मूल योजना के मुताबिक तो उसे हमारे साथ होना था, मगर दीवाली में कई रिेश्तेदार उसके घर पधार रहे थे, उनकी खातिर उसे रुकना पड़ा। वह अपने न आ पाने की कमी को पूरा करना चाहता था, सो उसने रिजॉर्ट के अपने परिचित स्टाफ को कहकर हमारे लिए कैंप फायर की व्यवस्था करवा दी। एक खुली जगह पर बीच में आग जलाकर चारों ओर कुर्सियां रख दी गईं। मेरे लिए खासकर एक मेज और सोडा आदि की बोतलें लग गईं। भारतीय युवती के साथ वह अमेरिकी सज्जन और नोएडा से आया दंपत्ति भी वहीं आ गए। एक छोटे आकार का सफेद पहाड़ी कुत्ता भी आग सेकने वहां चला आया था। अब अगले दिन तक हितू ने उसे छोडऩा नहीं था।

छोटे बच्चों वाले दो परिवारों में जल्दी दोस्ती हो जाती है क्योंकि बड़ों को बच्चों के बहाने बातें करना ज्यादा सहज लगता है। नोएडा वाले दंपत्ति से हमने बहुत सी बातें साझा कीं। मुझे सोनापानी में ठंड का आइडिया था, सो मैं यहां के लिए रम की बोतल लेता आया था। चारों ओर फेले घुप अंधेरे के बीच आग की गर्मी महसूस करते हुए गर्म पानी के साथ रम के पैग लेना - यह एक ओर अनुभव था जिसे मैंने बहुत बोधपूर्ण होकर आत्मसात करने की कोशिश की, यह सोचते हुए कि इस माहौल की विरलता और ऊष्मा का मैं किसी कविता कहानी में जरूर उपयोग करूंगा। मैंने अमेरिकी टूरिस्ट को भी रम का पैग ऑफर किया - यह हमारे बहादुर सिपाहियों का सबसे पसंदीदा डिं्रक है - मैंने उसे बताया। उसने खुशी से मेरा ऑफर स्वीकार कर लिया। उस ठंड में कोई ऐसा ऑफर ठुकरह्वाए भी तो कैसे। उस अमेरिकी से अमेरिका में मंदी और राजनीति पर बातें हुई। मैं उसे अपने सोमालिया के अनुभव सुनाना न भूला, जहां मैंने अमेरिकी सेना के साथ काम किया था । मैंने उसे बताया कि किस तरह सोमाली लड़ाकुओं ने अमेरिकी सेना का विरोध किया और उनके ब्लैक हॉक हैलीकॉप्टर जमींदोज किए। कुल मिलाकर वह शाम बहुत यादगार रही। बेटी इस बीच उसी सफेद कुत्ते के साथ खेल रही थी बार-बार उसके मुलायम बालों पर हाथ फेरती हुई।

आग के पास से उठकर डाइनिंग हॉल में आए तो एकाएक मेरे दांत ठंड से किटकिटाने लगे। गर्म गर्म दाल सब्जी के साथ दो-तीन रोटियां और एक दो हरी मिर्च खा लेने के बाद ही दांतों ने किटकिटाना बंद किया। वापस कॉटेज में लौटते हुए मैं हितू को आसमान में जगमगाते तारे दिखाना नहीं भूला। तारों से भरा वह आसमान कैसा लग रहा था, इसे बयां करना मुश्किल है। हितू हवा में उछलकर कुछ तारे तोडऩे की कोशिश कर रही थी। मैंने अनेक दृश्यों की तरह इस दृश्य को भी अपने भीतर 'सेवÓ कर लिया।

अगले रोज सुबह हम सूर्योदय से पहले ही उठ गए। शशि अपना कैमरा लेकर बाहर निकल गई और मैं सुबह दौड़ लगाने के अपने फितूर की राह पर। गई रात यहां के स्टाफ ने हमें बाघ के किस्से सुनाए थे। इसलिए मैं इतनी तडक़े अकेले ज्यादा दूर नहीं निकलना चाहता था। पर पता नहीं कहां से वह रात वाला सफेद कुत्ता मेरे पीछे हो लिया। कुत्ते का साथ पाकर मैं भी शेर हो गया। मैंने महसूस किया कि एक किलोमीटर के करीब दौड़ लगाकर ही मैं बहुत थकान महसूस करने लगा था। दिल्ली के मुकाबले यहां सांस भी ज्यादा फूल रही थी। साफ था मैं यहां समुद्र तल से काफी ज्यादा ऊंचाई पर था। मैं ज्यादा तो नहीं दौड़ा मगर जितना दौड़ा वह पसीना निकालने के लिए पर्याप्त था। पसीना न आए, ऐसा दौडऩा भी क्या दौडऩा!

इस बीच शशि ने हिम चोटियों पर सूर्य की पहली रश्मि के पहुंचने के कई फोटो खींच लिए थे। उसे विरल प्रजाति के पौधों और फूलों की तस्वीरें लेना भी बहुत उत्साहित कर रहा था। एक घंटे के दौरान उसने प्रकृति की करीब एक सौ तस्वीरें खींच ली होंगी। यही हाल नोएडा से आए युवक का था, जो बाकायदा ट्राईपोड लगाकर तस्वीरें खींच रहा था - महानगरों में रहने वाले लोग प्रकृति के कितने भूखे हो जाते हैं!

हमारी योजना सोनापानी से रामनगर जाने की थी, जो कि वहां से करीब चार-पांच घंटे के सफर की दूरी पर था। लेकिन चूंकि हमें दिन में जिम कॉर्बेट नैशनल पार्क में वाइल्ड लाइफ सफारी के लिए जाना था, यहां से जल्दी निकलना जरूरी थी। एक अच्छी बात यह हुई कि वहां एक घोड़े वाला मिल गया। घोड़े की सवारी हितू के मूड के लिए बहुत अच्छी रही। हमने एक बार फिर परिचित हो चुके डाइनिंग हॉल में स्वाद से भरपूर आलू की तरकारी और पूडिय़ों का नाश्ता किया और इस इरादे के साथ कि अगली बार वहां ज्यादा दिनों के लिए आएंगे वापस चल पड़े। हितू ने चलने से पहले अपने प्यारे उस सफेद कुत्ते को कई आवाजें लगाईं मगर वह न जाने जंगल में कहां चला गया था।

(अगली कड़ी में सफारी का किस्सा, जहां हमें एक विशालकाय हथिनी के दर्शन हुए, साक्षात यमदूत के रूप में। वह एक क्षण जब हथिनी सूंड उठाकर चिंघाड़ती हुई हमारी ओर लपकी थी, आज भी हमें थरथरा जाता है।)

इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता-संयोजक और लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. इस भूमिका की यह आख़िरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)


(पिछली कड़ी से जारी)

...यह एक अजीब पर इतिहास का विषम तथ्य है कि जिस प्रतापमयी व्यक्तित्व ने अपना देश स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष किया उसकी लाश यथासमय एक विदेशी धरती में दफ़न है. हम और इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लोग भारत सरकार से मांग करते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले जियाले सपूतों के महानायक तथा सम्मान योग्य भारतीय सपूत के साथ न्याय किया जाए और उनकी लाश को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पैतृक देश में लाकर दफ़न किया जाए. यह व्यक्तित्व निस्संदेह ही भारत के लिए गौरव का स्रोत है और स्वतन्त्र भारत को इसका आभारी और शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

सन् १८५७ की याद में आयोजित किए गए एक सौ पचास वर्षीय समारोह के अवसर पर उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर गुलज़ार ने लाल क़िला परिसर में हमारे मनोभाव का सीधा-सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार की ओर से आयोजित इस समारोह में यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए. भारतीय राष्ट्र के विभिन्न चिंतन-समूह के प्रतिनिधियों ने उनके विचारों की खुले मन-मस्तिष्क से प्रशंसा व सराहना की. खेद का विषय है कि इस बड़ी ऐतिहासिक ग़लती के सुधार के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया.

आने वाली पीढियाँ इस बात का निर्णय करती हैं कि राष्ट्र अपने शहीदों के प्रति किस प्रकार का बर्ताव करता है. इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो लगता है कि भारतीय जनता बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को भारत लाकर इस धरती में दफ़न करना चाहती है तथा उनके मज़ार पर उचित 'कत्बा' लगाना चाहती है परन्तु भारत के सत्ताधारी लोग इस 'जनमत' को महत्त्व नहीं दे रहे हैं

बहादुरशाह ज़फ़र हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और पंजाबी भाषाएँ धारा-प्रवाह बोलते थे. उन्होंने इन भाषाओं में अनेक नज़्में, ग़ज़लें कही हैं. इनमें उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का प्रबल शब्दों में समर्थन किया है तथा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, घृणा और असहिष्णुता की खुली भर्त्सना व निंदा की है. आज भारत को ऐसे लोगों की बड़ी आवश्यकता है जो बहादुरशाह ज़फ़र जैसी सोच, व्यापक-हृदयता, सच्चाई और रोशन-ख़याली के प्रतीक हों. मौजूदा हालात में, जब धार्मिक कट्टरता से वातावरण दूषित किया जा रहा है बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व और कटिबद्धता से सहनशीलता के प्रचार-प्रसार की बड़ी आवश्यकता है.

मेरे पास शब्द नहीं और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं उन सब महानुभावों को कैसे धन्यवाद दूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अपने बहुमूल्य समय में से वक़्त निकालकर हमारे निवेदन पर लेख लिखे और अपने सुझाव भी दिए, मेरी सहायता की और साहस बढ़ाया.

साहिर शीवी और सैयद मैराज जामी की पत्रिका 'सफ़ीरे उर्दू' के द्वारा हमें बहुत से लेख प्राप्त हुए. 'सफ़ीरे उर्दू' का बहादुर शाह ज़फ़र विशेषांक मेरे ही निवेदन पर प्रकाशित किया गया था. बारह वर्ष पूर्व मोइनुद्दीन शाह साहब (मरहूम) ने अपनी पत्रिका 'उर्दू अदब' का बहादुरशाह ज़फ़र विशेषांक प्रकाशित कर ज़फ़र को श्रद्धांजलि दी थी. इस पुस्तक में कुछ लेख उल्लिखित विशेषांक से भी लिए गए हैं. अंत में उर्दू के विश्वसनीय लेखक व प्रकाशक 'खादिम-ए-उर्दू' (उर्दू-सेवक) प्रेमगोपाल मित्तल साहब की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा में अपना बहुमूल्य समय लगाया.(समाप्त)

-डॉक्टर विद्यासागर आनंद

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

Thursday, December 18, 2008

तारों की आकाशगंगा में मिलते रहें हम: चीनी कविताओं की श्रृंखला - अन्तिम भाग



ली पाइ (७०१-७६२), जिन्हें ली पो और ली थाइ पाइ के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर पश्चिमी चीन के रहने वाले थे. बचपन में ही उनका परिवार सद्दवान प्रान्त चला गया था. वहीं उनका बचपन और कैशोर्य बीता. चालीस वर्ष के होने पर वे छांग आन (तब का एक समृद्ध चीनी नगर जिसे राजधानी का दर्ज़ा प्राप्त था) की शाही अकादमी में शामिल हुए. वे घुमक्कड़ प्रकृति के एक बहुत ही मस्त जीव थे. तभी चीन का प्रसिद्ध आन लू शान विद्रोह भड़क उठा. ली पाइ शाही कोप के शिकार बने और उन्हें उत्तर पश्चिम में निष्कासित कर दिया गया. बाद में उन्हें क्षमादान मिला और वे वापस आ गए. ७६२ में उनका देहावसान हो गया.

ली पाइ अपने समकालीनों में कवि के तौर पर सर्वाधिक काव्यप्रतिभासम्पन्न थे. उनकी कविता में, लगता है, जैसे उनके भीतर से ही प्रकृति के दृश्यरूप प्रकट हुआ करते थे. राजे-रजवाड़ों और अधिकारियों से उन्हें उबकाई आती थी. इसलिए जब आन लू शान का विद्रोह भड़का तो जाहिर है उनकी शामत आनी ही थी. एक बार उन्होंने लिखा : "मैं पूरे एक महीने शराब में डूबा रहा, रजवाड़ों और ज़मींदारों से एकदम विमुख. मैं कैसे अमीरज़ादों और महान लोगों की सेवा में हाज़िर हो सकता हूं." लेकिन जनता के दुःख-दर्द और जीवन के वे हमेशा समीप रहते थे. उन की कविता में शोक, मौज-मस्ती और प्रकृति से अभिन्न अनुराग गोया अलग अलग किया ही नहीं जा सकता.


चांदनी में एकान्त-पान

फूलों के बीच मदिरापात्र लिए हाथ में
पीता हूं अकेला मैं, नहीं कोई हमप्याला
उठाता हूं जाम, आमंत्रित करता हूं चांद को
और फिर साथ में मेरा साया, हम हो गए हैं तीन
चंद्रमा को नहीं मालूम पीने का मज़ा
और मेरा साया बस चलता है मेरे पीछे-पीछे
फिर भी हों वे मेरे साथ
कौन गंवाए आनन्द की यह घड़ी
मैं गाता हूं, चंद्रमा मटरगश्ती करता है
मैं नाचता हूं, उलझन में पड़ जाता है मेरा साया
होश तक पीता हूं उनके साथ
धुत्त होने पर लेता हूं विदा
आगे भी उड़ावें हम दावत साथ-साथ
तारों की आकाशगंगा में
मिलते रहें हम

सीढ़ियों की शिकायत

संगमरमरी सीढ़ियों पर प्रकट है शुभ्र ओस
और लम्बी रातों में निचुड़ आती हैं मेरी जुराबों में
अब मैं इस पारदर्शी पर्दे को गिराता हूं
इस से होकर ताकता हूं शरद के चांद को

एक पहाड़ी पर: सवाल जवाब

पूछते हो क्यों मैं रहता हूं इस हरी-भरी पहाड़ी पर
मुस्कराता हूं मैं, हृदय चुप और प्रशान्त
बहते जल पर जाते आडूपात कहीं सुदूर
एकदम अलग धरती, एकदम अलग आसमान
एक्दम अलग नीचे की दुनिया से



इस सीरीज़ के सारे अनुवाद श्री त्रिनेत्र जोशी के हैं. उन्होंने इनका इस्तेमाल करने की इजाज़त दी, इस के लिए कबाड़खाना उनका आभारी है.

दफ़न का स्थान आरक्षित कर रखा था ज़फ़र ने

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आपकी प्रतिक्रिया हमारे इस ब्लॉग पर उत्साहवर्द्धक रही है. इसी भूमिका की यह दूसरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)



पिछली कड़ी से आगे...

...स्वतंत्रता-दीप प्रज्ज्वलित रखने के लिए राष्ट्र को संगठित व अनुशासित रखना आवश्यक था अतः देश के राजनैतिक व धार्मिक पथ-प्रदर्शकों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन को भारत के कोने-कोने तक फैला दिया. इनमें कुछेक तो भारत से बाहर के अन्य देशों तक चले गए तथा वहाँ स्वतंत्रता-आन्दोलन को सुदृढ़ बनाने हेतु सहायता प्राप्त करने के प्रयत्न किए.

इस लंबे स्वतंत्रता-आन्दोलन का उद्देश्य अंततः नब्बे वर्ष बाद १५ अगस्त १९४७ को तब जाकर प्राप्त हुआ, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र के पूर्वजों के लाल क़िले से स्वतन्त्र भारत की घोषणा की. उस ऐतिहासिक दिवस से अब तक साठ वर्ष का (भूमिका लिखे जाते समय) समय बीत चुका है लेकिन खेद की बात है कि इस बीच भारत के राजनेताओं ने इस स्वतंत्रता-संग्राम में देश के बाहर व भीतर शहीद होने वाले जियालों के सम्मान को बढ़ावा देने में ढिलाई बरती और उन्हें वह स्थान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे.

यहाँ अधिक अफ़सोस की बात यह है कि स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ज़फ़र के अवशेष भारत लाने का समर्थन किया था पर नामालूम कारणों से इस दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया गया. १ से ७ अक्टूबर के साप्ताहिक 'हमारी ज़बान' नई दिल्ली में इस विषय पर पंडित नेहरू का एक नोट प्रकाशित हुआ जिसके अनुसार उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था:-
"मौलाना साहब (आशय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से है) की राय है कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को रंगून से लाकर हुमायूं के मक़बरे में दफ़नाया जाए क्योंकि स्वयं उनकी भी अन्तिम इच्छा यही थी. मैं इस विषय में अपनी कैबिनेट के कुछ मंत्रियों से बात कर चुका हूँ और उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं है."

नेहरू जी ने इसी नोट में आगे लिखा:-

"संभवतः बर्मा सरकार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी. मैं इस सुझाव के विषय में आपकी प्रतिक्रया जानना चाहता हूँ, तत्पश्चात् हम इस मामले की और अधिक तफ़्तीश कर सकते हैं."

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र की अन्तिम इच्छा का उल्लेख करते हुए हुमायूं के मक़बरे में दफ़न होने की इच्छा बताई है जो किसी भ्रम के कारण है वरना तथ्य यह है कि ज़फ़र ने अपने दफ़न के लिए क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के निकट ही अपने पूर्वजों के पहलू में अपने लिए एक स्थान आरक्षित किया हुआ था. मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग अपने बहुचर्चित लेख 'फूल वालों की सैर' (सन् १९३४) में लिखते हैं:-

'देहली के बादशाहों ने आप (हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी) के मज़ार के चारों ओर संगमरमर की जालियाँ, फर्श और दरवाज़े बनवा दिए. दीवारों पर काशानी ईंटों का काम करवाया तथा आसपास मस्जिदें अदि बनवाईं... एक ओर तो संगमरमर की छोटी मस्जिद है और उसके पहलू में अन्तिम समय के बादशाहों के कुछ मज़ार हैं. बीच में शाहआलम द्वितीय का मज़ार है और उसकी एक ओर अकबरशाह द्वितीय की क़ब्र का एक पहलू ख़ाली था, उसमें बहादुरशाह ज़फ़र ने अपना 'सरवाया' (सुरक्षित स्थान) रखा था. विचार था कि मरने के बाद बाप-दादा के पहलू में जा पड़ेंगे, यह क्या मालूम था कि वहाँ क़ब्र बनेगी, जहाँ पूर्वजों का पहलू तो दूर की बात, कोई फ़ातिहा पढ़ने वाला भी न होगा.' (मज़ामीन-ए-फ़रहत (द्वितीय) लेख 'बहादुरशाह ज़फ़र और फूल वालों की सैर', प्रकाशक सरफ़राज़ प्रेस लखनऊ, पृष्ठ ४२).

प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के एक सौ पचास वर्षीय जश्न के अवसर पर बहादुरशाह ज़फ़र के लाल क़िले (जिसका प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से निकट का सम्बन्ध रहा है) के समकालीन व्यवस्थापकों को इस विषय पर एक संदेश भेजा गया. इसके अतिरिक्त भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों और प्रवासी भारतीयों से भी हमने संपर्क साधा तथा बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष वापस अपने देश में लाने की मांग पर ध्यान देने का निवेदन किया. हमें इसकी ख़ुशी है कि अनेक लेखकों, शायरों, इतिहासकारों, पत्रकारों तथा बुद्धिजीवियों ने हमारे निवेदन को सहर्ष स्वीकारते हुए हमें अपनी रचनाएं भिजवायीं. इसके साथ ही उन्होंने हमारी इस मांग का समर्थन भी किया कि बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष विदेश से वापस अपने देश लाये जाएँ.


अगली कड़ी में जारी...

Wednesday, December 17, 2008

जीवन से ग़ायब होते लोग: १



ये हैं बाबूलाल जी. सिल बट्टे ठीक किया करते हैं. हर साल एक बार हमारे घर आते हैं. बरेली के रहने वाले हैं. उमर बकौल उन्हीं के कोई पिचहत्तर अस्सी पिचहत्तर. बजाए मैं अपनी तरफ़ से कुछ जोड़ूं, एक छोटा सा वीडियो देखिये उनका. वीडियो लिया है रोहित उमराव ने और उनसे बातचीत भी वही कर रहे हैं.

Tuesday, December 16, 2008

अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र

(जिस पुस्तक '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' का जिक्र मैंने अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आलेख की भाषा अवश्य अधिक चुस्त नहीं है, लेकिन विश्वास है कि इसमें व्यक्त की गयी तीव्र भावना पाठकों को ईमानदार लगेगी. यही भूमिका कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है- विजयशंकर चतुर्वेदी)

क्या नहीं हमने किया आज़ाद होने के लिए
खून भी अपना बहाया शाद होने के लिए
ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से
उर दिया बुझने न दें लड़ते रहें तूफ़ान से
हक़ हमारा था कि आज़ादी को फिर हासिल करें
मात अंग्रेज़ों को देने में जिएँ या हम मरें
पेशे-आज़ादी हमारी ज़िंदगी क्या चीज़ है
उर गुलामी को मिटाने जान भी क्या चीज़ है

गुलामी से मुक्ति तथा विदेशी प्रभुत्व व प्रभुसत्ता से आज़ादी पाने के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र ने एकजुट होकर स्वतंत्रता-संकल्प लिया था. अपने जान-माल की परवाह किए बिना तथा परिणाम के बारे में सोचे बिना, कफन को लहू में डुबोकर अपने सिरों से बाँध लिया था.

सन १८५७ का भयावह काल वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत कुर्बानियों व बलिदान की दास्तान है. एक ऐसी दास्तान जिसका आरंभ बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ- वे पवित्र परन्तु क्षीण हाथ- जिन पर सारे हिन्दुओं, मुसलमानों व सिखों ने आस्था रखी, उन पर विश्वास रखा; जिसके कारण ही आज हम भारत को स्वतन्त्र देख रहे हैं. वह वास्तव में हमारे नब्बे वर्ष के लंबे संघर्ष का ही फल है.

आज़ादी की इच्छा एक ऐसी इच्छा थी जिसने विमुखता, अवज्ञा और नाफ़रमानी को जन्म दिया. अंग्रेज़ों ने इसे 'ग़दर' का नाम दिया, जिससे जाग्रति की एक ऐसी किरण फूटी; एक ऐसा सूर्य उदय हुआ जिससे अंग्रेज़ों को अपने पतन का आभास होने लगा. यह एक ऐसा संघर्ष था, एक ऐसा प्रकाश था जिसने अंग्रेज़ों के इरादों को जला देने के लिए चिंगारी का काम किया. तमाम भारतीयों के मन में विदेशी-प्रभुत्व तथा गुलामी का फंदा अपने गले से उतार फेंकने के सुदृढ़ संकल्प थे. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-

'रोशनी आग से निकली है जला सकती है.'

सन् १८५७ के बाद बहादुरशाह ज़फ़र को अत्यन्त बेइज्जती एवं तौहीन भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा था. आज़ादी का चिराग जलानेवाले इस अन्तिम मुग़ल शासक को रुसवा करके बड़ी दयनीय स्थिति में घर से हज़ारों मील दूर कैदखाने में भेज दिया गया तथा भारतीय नागरिकों पर भी अत्याचारों का पहाड़ तोड़ा गया. उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया. मासूम बच्चों को रौंदा गया तथा पवित्र नारियों की शीलता को तार-तार किया गया. इन अत्याचारों और सख्तियों के कारण भारतीयों में स्वतंत्रता-संग्राम की उमंग और बढ़ गयी, अधिक प्रबलता प्राप्त हुई और वे देश पर मर-मिटने के लिए तैयार हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी का एक शेर है-

'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

इन सामूहिक संकल्पों और निरंतर संघर्ष का तर्क-संगत परिणाम सन् १९४७ में सामने आया. यह एक कठिन समय था जिसमें अनेक उत्त्थान-पतन हुए. आज़ादी की लड़ाई को विभिन्न स्तरों पर लड़ना पड़ा.

बहादुरशाह ज़फ़र को यद्यपि इतिहासकार एक पीड़ित और बेबस बादशाह के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर आम व्यक्ति के दिल में उनके लिए स्नेह, मान और हमदर्दी के भाव मिलते हैं. वर्त्तमान में स्वयं को न्यायप्रिय कहलवाने वाला राष्ट्र (यहाँ आशय ब्रिटिश साम्राज्य से है), जिसने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए, संस्कृति, सभ्यता एवं मानवता के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दीं, वह क्रूरतम शासकों में शामिल हुआ. अंगेज़ लेखकों ने उस काल के भयावह हालत का उल्लेख अपने लेखों में शायद ही पूरी ईमानदारी से किया हो. ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मासूम व बेबस बादशाह अपने बेटों की जाँ-बख्शी की भीख मांगता है तो तानाशाह उसके बेटों के सर काटकर थाल में सजा कर प्रस्तुत करता है;-

दे दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
ये ख़ुदा ही जानता है किस तरह ज़िंदा रहा
दूर जाकर अपने घर से बेनवां होकर मरा
फ़र्ज़ अब अपना है हिन्दुस्तान में लाएं उसे
इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे
परचम-ए-आज़ादी उसकी क़ब्र पर लहराएं हम
ताज-ए-आज़ादी अब उसकी नअश को पहनाएं हम
भूलने पाएं न उसकी याद को हम हश्र तक
आन उसकी कम न हो न माद हो उसकी चमक
हो शहीदों की चिताओं के मज़ारों की ज़िया
औ न हो पाए कभी ख़ामोश आख़िर तक सदा
ऐसे शोहदा जिनको अपनी जान की परवा न थी
देश-भक्ति में फना कर दी जिन्होंने ज़िंदगी
उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र
बेबसी में थी गुज़ारी जिसने हर शाम-ओ-सहर
उसकी क़ुरबानी को जो भूले नहीं वो आदमी
मीर-ए-आज़ादी को जो भूले, नहीं वो आदमी

अगली कड़ी में जारी...

दिल सख़्त क़यामत पत्थर सा और बातें नर्म रसीली सी







ख़ूरेज़ करिश्मा नाज़ सितम ग़मज़ों की झुकावट वैसी ही .
पलकों की झपक पुतली की फिरत सुरमे की घुलावट वैसी ही .

बेदर्द सितमगर बेपरवा बेकल चंचल चटकीली सी.
दिल सख़्त क़यामत पत्थर सा और बातें नर्म रसीली सी.

चेहरे पर हुस्न की गर्मी से हर आन चमकते मोती से .
ख़ुशरंग पसीने की बूँदें सौ बार झमकते मोती से.



शब्द : नज़ीर अकबराबादी
स्वर : छाया गांगुली
धुन : मुज़फ़्फ़र अली
अलबम : 'हुस्न-ए-जाना' / १९९७

Monday, December 15, 2008

ये संसार कागद की पुड़िया

एक दोस्त हैं श्रीमान राजेन्द्र बोरा. अल्मोड़ा रहा करते थे. रोहित उमराव के कैमरे से इस साल अल्मोड़ा के दशहरे की जो तस्वीरें आपने देखीं थीं उनमें ज़्यादातर को बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. पिछले कोई चालीस सालों से अल्मोड़ा की सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र में रहे बोरा जी की पुतले बनाने की कला के ऊपर बाकायदा एक फ़िल्म बनाई जा चुकी है: 'द बर्निंग पपेट्स'. राजेन्द्र बोरा के कुमाऊंनी फ़िल्में बनाई हैं, उनमें अभिनय किया है, गीत लिखे हैं और जाने क्या-क्या. अल्मोड़ा के विख्यात हुक्का क्लब के ऐतिहासिक महत्व के वार्षिक प्रकाशन 'पुरवासी' के सम्पादक मंडल के वे मुख्य सूत्रधारों में रहे हैं. वे कवि हैं, भाषाविद हैं, संगीतकार हैं और भले आदमी.

मेरा उनसे परिचय कोई पांच साल पुराना है. पहली दो मुलाकातें दारू के भीषण नशे में हुईं. दूसरी मुलाकात के अगले दिन मैंने उनका दूसरा रूप देखा - वे वहां एक बैंक के मैनेजर भी थे. और दूर-दराज़ के गांवों से आए ग्राहकों के साथ बहुत ही मानवीयता से पेश आने वाले सहृदय इन्सान के तौर पर उनकी छवि अब भी मन में जस की तस है. लंच टाइम में वे मुझे बैंक के ही पिछले कमरों में स्थित अपने आवास में ले गए और अपने हाथों से स्वादिष्ट खिचड़ी बना कर खिलाई.

पिछले साल इन्हीं दिनों एक रात करीब दस बजे हल्द्वानी में उनका फ़ोन आया: "यार बहुत बीमार हूं. इलाज कराने आया हूं. जल्दी मिलो." उनकी आवाज़ बता रही थी वे धुत्त थे. इत्तफ़ाकन घर पर रोहित था. हम दोनों हल्द्वानी के रेलवे बाज़ार में एक होटल में उनसे मिले जहां वे क़याम किये थे. बहुत ही रद्दी होटल था - गन्दा और बदबूदार. मैंने घर चलने का आग्रह किया पर किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह वे आदतन बोले "मैं किसी के घर - वर नहीं जाऊंगा!". उन्होंने मुझे नोटों की गड्डी थमाई और कहा: "शायद इसकी ज़रूरत पड़े. कम होंगे तो और आ जाएंगे. अब गुड नाइट!"

खैर! सुबह उन्हें एक परिचित अस्पताल में दाखिल कराया. डॉक्टर बोले कि हल्द्वानी में इलाज़ सम्भव नहीं. मुझे पता था उनकी बीमारी की जड़ में दारू और सिगरेट थे. मैंने उन्हें कुछ दिन फ़कत आराम दिलाने के उद्देश्य से प्राइवेट वार्ड में भर्ती करा दिया. दो दिन में उनके चेहरे पर नूर उतरने लगा. तीन टाइम खाना, न दारू न सिगरेट, और वक्त पर ज़रूरी चिकित्सकीय सहायता. दिन भर हम बतियाया करते. दुनिया जहान की बातें होतीं. उन्हें अचानक बहुत सारी बातों पर अफ़सोस होने लगा था. ठीक हो जाने के बाद खूब काम करने की अनेक योजनाएं थीं उनके जेहन में. कोई तीन दिन बाद उनके एक बहनोई साहब नैनीताल से तशरीफ़ लाए. रात को उन्होंने वार्ड में सोने का ज़िम्मा सम्हाला और कोई सप्ताह भर बाद उनके बड़े भाई आए. दिल्ली ले जाने को. बस अड्डे पर उन्हें विदा किया. दिल्ली पहुंचकर उन्होंने फ़ोन किया और आगामी दो महीनों में होने वाले तीन आपरेशनों के बाबत बताया.

कई माह उनका फ़ोन आउट ऑफ़ रीच आता रहा. पर मैं निश्चिन्त था. मुझे दूसरे सूत्रों से खबर लगी कि उनके आपरेशन सफल रहे. वापस अल्मोड़ा आ कर उनका फ़ोन आया. मैं डरा हुआ था कि कहीं वे पुनः अल्मोड़ा की पुरानी बुद्धिजीवी राह न थाम लें.

अचानक मेरे अपने घर पर विपदाएं पड़नी शुरू हुईं जो अब तक जारी हैं. ... खैर, मैं उनसे न तो मिल ही सका न फ़ोन कर सका. दशहरे के समय रोहित अल्मोड़ा जा कर फ़ोटो खींचने को लालायित था. मैंने बोरा जी को फ़ोन किया. वे खुश हुए. "गुंडागर्दी कैसी चल रही है आपकी?" मैंने उनसे पूछा. "न न अब कोई गुंडागर्दी नहीं." उन्होंने बच्चों की तरह आश्वस्त करने की शैली में जवाब दिया.

रोहित गया और वापस आ गया. फ़ोटो खींच कर लाया. खुश था. बोला बोरा जी बिल्कुल बदल गए. मुझे अच्छा लगा.

अभी कुछ दिन पहले वे मुझे आश्चर्यचकित करने मेरे घर पधारे. उनके एक हाथ में सोनी का अल्ट्रामॉडर्न वीडियो कैमरा था और दूसरे में कमंडल. "अब तो काम करना है. बस." वे बोले और उन्होंने मुझे शर्मसार करते हुए सब के सामने मेरे पैर छू लिए. तब पता नहीं कैसा लगा पर अब अच्छा सा लगता है कि वे जहां भी होंगे जीवन के नज़दीक होंगे. और मैं दुआ करता हूं खुश भी. राजेन्द्र बोरा से त्रिभुवनगिरि स्वामी बनने उपरोक्त क्रम की बानगी ये रही. सारे फ़ोटो रोहित उमराव के हैं.






कब घर आओगे, मोरा जियरा उदास : पं. अजय पोहनकर



पं. अजय पोहनकर और स्वाति नाटेकर ने २००३ में 'बिरहा' नाम से एक अल्बम निकाला था. उसी से सुनिये एक क्लासिकल पीस 'कब घर आओगे, मोरा जियरा उदास'.



(यह रहा डाउनलोड लिंक: http://www.divshare.com/download/6090512-db2)

Sunday, December 14, 2008

वो गाये तो आफ़त लाये है सुर ताल में लेवे जान निकाल









शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी है,
जूड़े की गुँठावत बहरे - ख़ुदा ज़ुल्फ़ों की लटक फिर वैसी है.


हर बात में उसके गर्मी है हर नाज़ में उसके शोख़ी है.
आमद है क़यामत चाल भरी चलने की फड़क फिर वैसी है.


मेहरम है हबाबे-आबे-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट,
जाली की ये कुरती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी है.


वो गाये तो आफ़त लाये है सुर ताल में लेवे जान निकाल,
नाच उस का उठाए सौ फ़ितने घुँघरू की छनक फिर वैसी है.


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शब्द : बहादुरशाह 'ज़फ़र'
स्वर : हबीब वली मोहम्मद

Saturday, December 13, 2008

कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए...

सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फर एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है. यह आख़िरी कड़ी है.

(पिछली कड़ी से जारी)... इन लेखों में एक मिर्ज़ा ग़ालिब लिखित 'दस्तंबू' पर आधारित लेख भी है. 'दस्तंबू' ग़ालिब द्वारा १८५७ की क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा दिल्ली के क्रूर क़त्ल-ए-आम और लूट-पाट का आंखों देखा वर्णन है.

पुस्तक ५ अध्यायों में विभाजित है. पृष्ठ ५ से ३६ तक संक्षिप्त हिस्सों में संदेश, समर्पण, श्रद्धा-सुमन, भूमिका आदि औपचारिकताएं हैं, लेकिन ये भी अत्यन्त पठनीय और उपयोगी हैं. पुस्तक पूर्व सांसद और 'फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन' के संस्थापक अध्यक्ष पद्मभूषण शशिभूषण जी को समर्पित है. शुभकामना संदेशों में प्रमुख है ब्रिटिश सांसद वीरेन्द्र शर्मा (ईलिंग साउदोल संसद, हाउस ऑफ़ कामंस के सदस्य) का संदेश. डॉक्टर विद्यासागर आनंद की भूमिका भी अवश्य पठनीय है.

'ज़फ़र की पुकार' शीर्षक से जो दूसरा अध्याय है, यही वास्तव में पुस्तक का मूल अंश है. इसमें बहादुरशाह ज़फ़र, १८५७ की क्रान्ति, विभिन्न सेनानी, शहीदों आदि से सम्बंधित 31 लेख हैं जो हमें कई अनजान पहलुओं से परिचित कराते हैं. इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू का मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को लिखा वह पत्र भी शामिल है जिसमें वह बहादुर शाह ज़फ़र की भारतीयता, उनकी महत्ता बताने के साथ-साथ ज़फ़र के पार्थिव अवशेषों को रंगून से लाकर दिल्ली में समाधिस्थ करने की जरूरत पर ज़ोर देते हैं.

हमें यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली की मिट्टी में दफ़न होने की इच्छा बहादुरशाह ज़फ़र की तो थी ही, उनकी इस इच्छा की पूर्ति की दिशा में पंडित नेहरू ने पहल भी की थी. ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय आज़ादी के निराले योद्धा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भी यही इच्छा थी; ज़फ़र के अवशेष दिल्ली ही लाए जाएँ. 'आज़ाद हिंद फौज़' के गठन की प्रक्रिया में ही जब नेताजी रंगून गए, तो ज़फर की समाधि पर फूल चढ़ाते हुए उन्होंने भी यही इच्छा जाहिर की, और ज़फर की समाधि से ही नेताजी ने अपना लोकप्रियतम, उत्तेजक, नसों में खून की गति तेज कर देने वाला नारा लगाया- 'दिल्ली चलो.'

एक अध्याय विभिन्न शायरों द्वारा ज़फ़र को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए रची गई काव्य-रचनाओं का है- 'काव्य-श्रद्धा.' और अन्तिम अध्याय है ज़फ़र की काव्य रचनाओं में से चुनी गईं कुछ रचनाएं- गज़लें, नग्मे, रुबाइयात वगैरह. ज़फ़र एक महान शायर थे. उनकी शायरी में उनकी राजनीतिक विफलता का दुःख तो है ही, अंग्रेजों द्वारा तीन बेटों की हत्या किए जाने का दारुण दुःख, अपनी मार्मिक असहायता, निकटतम मित्रों, बेगमों, रिश्तेदारों की गद्दारी आदि से उपजी भीषण हताशा भी है, लेकिन इन सबके बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द्र, उदार मानवतावाद, भारत की मिट्टी से उनका प्रेम, प्रकृति का असीम सौन्दर्य, ईश्वर के प्रति उनकी आस्था, ईंट-पत्थर के मन्दिर-मस्जिदों की बजाए मनुष्य के ह्रदय के मन्दिर-मसाजिद पर ज्यादा विश्वास जैसी ज़फ़र की अनेक मानवीय-चारित्रिक खूबियाँ भी बड़ी ही शिद्दत के साथ आयी हैं.

उर्दू के अनन्य सेवक 'माडर्न पब्लिशिंग हाउस', नई दिल्ली के स्वत्वाधिकारी प्रेमगोपाल मित्तल अवश्य ही इस अत्यन्त जरूरी, उपयोगी, एक राष्ट्रीय अभियान को गति देने वाली इस दस्तावेजी और विचारोत्तेजक पुस्तक को छापने के कारण प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र हैं. पुस्तक तथा पुस्तक के सम्पादक के विषय में मित्तल जी के विचार फ्लैप पर दिए गए हैं. इस पुस्तक के संयोजन एवं प्रकाशन के पीछे जो भावना है वह प्रणम्य है. दो ही चार हिन्दी विद्वानों के अलावा इस पुस्तक के शेष सभी लेखक मुख्यतः उर्दू के विद्वान लेखक हैं. लेकिन उनकी इस महती कृति को हिन्दी पाठकों का आदर और स्नेह अवश्य मिलेगा.

अंत में पुस्तक के प्रकाशन के विषय में कुछ बातें. बहुत ही अच्छे कागज़ पर उत्कृष्ट छपाई, उत्कृष्ट बंधाई के साथ यह पुस्तक भीतर के रंगीन और ब्लैक एंड व्हाइट २९ अमूल्य छाया-चित्रों के साथ-साथ बेहद सुंदर मुखपृष्ठ के लिए पाठकों को अत्यन्त प्रिय लगेगी.

लेकिन पुस्तक पढ़ते समय एक कमी पाठकों को लगातार खटकती रहती है. वह है प्रूफ़ की अशुद्धियाँ. ऐसे प्रामाणिक दस्तावेजी ग्रन्थ में प्रूफ़ की अशुद्धियाँ होना ही नहीं चाहिए. जबकि इसमें इतनी ज्यादा हैं कि खीझ होती है. उद्धरण को उद्धर्न, लगन को लग्न, ऑफसेट को अफ्सेट, प्रेस को प्रैस, सेनानी को सैनानी, फ़ारसी को फार्सी पढ़ते हुए कोफ़्त होती है. ब्रिटिश सांसद का नाम छापा है विरेंद्र शर्मा! यदि वह स्वयं अपने नाम के हिज्जे इस तरह लिखते हों तो आपत्ति नहीं, उनकी मर्जी है, लेकिन भाषा में विरेंद्र तो होता नहीं; वीरेन्द्र ही होता है.

फ्लैप पर जो सामग्री है, उसके अंत में 'इस पुस्तक में' को वाक्य की शुरुआत में लिख दिए जाने के बाद भी फिर वाक्य के अंत में लिखा गया है, जो सही नहीं है. और तो और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह अत्यन्त प्रसिद्ध बहादुर शाह ज़फ़र का शेर- 'गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की' ग़लत छापा गया है. तख्त-ए-लन्दन की जगह 'तब तो लन्दन' छपा है. विश्वास है पुस्तक के अगले संस्करण में प्रूफ़ की तमाम भूलें सुधार ली जाएँगी. दस्तावेजी पाठ में हिज्जे की गलतियाँ भ्रम पैदा करती हैं. अतः उन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

Friday, December 12, 2008

पोखर की मछली जाना चाहती है फिर से अपने तालाब में :चीनी कविताओं की श्रृंखला - 3



थाओ छ्येन (३६५-४२७) या थाओ य्वैन मिंग राजवंश काल (६१८-९०७) के पूर्व के कवियों में एक महत्वपूर्ण और प्रेरक स्थान रखते थे. परवर्ती काल के महत्वपूर्ण कवि वांग वेई पर उनका खासा काव्यात्मक असर रहा है. उन्होंने इहलौकिक जीवन की व्यर्थता पर काफ़ी कुछ लिखा और अंततः वे प्रकृति के आंचल में ही मुक्ति के काव्य के रचयिता के तौर पर प्रतिष्ठित हुए. वे एक गरीब किसान परिवार से थे. छोटे सरकारी पद पर बने रहने के बावजूद वे अपने किसान जीवन के प्रति हमेशा लालायित बने रहे. वे बहुत स्वाभिमानी थे. नौकरी छोड़ने के बाद भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. उन का घर आग में स्वाहा हो गया और उनके अगले बीस साल बहुत तकलीफ़ में बीते, पर उन्होंने कोई भी सरकारी मदद नहीं ली. उन की कविताओं की सरल भाषा और अध्यात्मिकता चीनी कविता के श्रेष्ठतम कवियों में उनका विशिष्ट स्थान सुरक्षित करती है. बेशक ताओवाद का उनकी कविताओं पर गहरा असर है.

दक्षिण में प्रकृति की गोद में

छुटपन में नहीं लिया मज़ा मंडली का
कामना रही बस शिखरों की
गलती से फंस गया दुनियादारी के जंजाल में
यों ही उलझा रहा तीस सालों तक
कैद पक्षी लौटने को बेताब अपने पुराने जंगल में
पोखर की मछली जाना चाहती है फिर से अपने तालाब में
मैं जाना चाहता हूं अपने दक्षिण की ओर
खेतों और बागों में
बस दस एकड़ ज़मीन मेरी अपनी
घास-फूंस से ढंके घर में आठ-नौ कमरे
मज़बूत कद-काठी वाले छायादार पेड़
ओरियों के पार सरपत-वृक्ष
बड़े कक्ष के दरवाज़े के सामने आड़ू और आलूचे के पेड़
धुंधली दूरी पर एक गांव
हमेशा धुंए के दामन में
गली में कहीं भूंकता कुत्ता
कुकुटाता है शहतूत पर बैठा चूज़ा.
दुनियादारी से मुक्त मेरा घर
इतने कमरे अक्सर खाली
आखिर कैद से आज़ाद हुआ मैं
फिर से अपनी प्रकृति में

(मूल चीनी से अनुवाद: त्रिनेत्र जोशी
'तनाव' से साभार)

Thursday, December 11, 2008

तुम भी मेरे गांव-गवार के हो: चीनी कविताओं की श्रृंखला - २



चीनी से हिन्दी में किए गए श्री त्रिनेत्र जोशी के अनुवादों की दूसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं वांग वेई की कविताएं.

वांग वेई (७०१-७६१) चीन के वर्तमान शांसी प्रान्त के निवासी थे. वह एक प्रतिभासम्पन्न कवि तो थे ही, एक विशिष्ट चित्रकार और संगीतकार भी थे. इसलिए उन की कविता में प्रकृति, रेखाचित्रों वाली सूक्ष्म लाक्षणिक अभिव्यक्ति और सांगीतिक लय का अद्भुत योग है.

वे दृश्य की सूक्ष्म कढ़ाई कर उसमें प्रकृति की रंगत का समानुपातिक मिश्रण कर मानवीय कल्पना की उड़ान के असंख्य आसमानों को पार कर जाते हैं और एक सहृदय पाठक आश्चर्यचकित रह जाता है.


घाटी में चिड़ियें

सुस्ता रहा हूं मैं, कुमुदिनी की पंखुड़ियां झर रही हैं
वसंत की चुप रात और रिक्त पहाड़
झांकता है चन्द्रमा ताकता पहाड़ी चिड़ियों को
वासंती घाटी में नहीं रुकती उन की चिंचियाहट

यों ही

तुम भी मेरे गांव-गवार के हो
ज़रूर होंगे तुम्हारे पास कस्बे के हालचाल
भोर में रेशमी खिड़की के सामने
क्या ठंड के मारे फूट नहीं पा रहे हैं आलूचे के कल्ले?

मठ की ओर

एक तंग गहन छायादार रास्ता मठ-वृक्ष की ओर,
गहरा और अंधेरा, काई की इफ़रात
आंगन की सफ़ाई तक दरवाज़े पर इंतज़ार
अगर उतरे पहाड़ी से कोई भिक्षु

मंग छंग आओ

मंग छंग के मुहाने पर मेरा नया घर,
प्राचीन सरपत शोक से आच्छादित
बाद में कौन आएगा, नहीं मालूम
शायद पूर्वजों के लिए करेगा शोक

दक्षिणी पहाड़ी

एक हल्की नौका रवाना होती है दक्षिणी पहाड़ी से
अनंत को पार कर उत्तर पहुंचना है मुश्किल
उस तट पर, तलाशता हूं अपना घर,
इतनी दूर कि पहचानना असंभव

कुमुदिनी प्रांगण

शरद में पहाड़ियां समेट रही हैं बची खुची रोशनी
साथी का पीछा कर रही है चिड़िया
हरे रंग में आती है हल्की सी चमक
सूर्यास्त का कोहरा भटकता है दर-ब-दर.

हरिण प्रांगण

उजाड़ हैं पहाड़ियां एकदम निर्जन
फिर भी आती हैं लोगों की आवाज़ें
बियावान जंगल में गिरती है रोशनी
फिर चमकती है हरी काई पर.

(इन कविताओं को यहां पोस्ट करते हुए मैं अपनी तरफ़ से जोड़ना चाहूंगा कि वांग वेई की इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कभी तो अपने महान बंगकवि जीबनानन्द दास याद आते रहे और कभी आस्ट्रिया के गियोर्ग ट्राकल. इन दोनों की कविताएं भी जल्दी ही यहां लगाऊंगा. फ़िलहाल जोशी जी के अनुवादों की सीरीज़ जारी रहेगी.)